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________________ * परमात्मभाव का मूलाधार : अनन्त शक्ति की अभिव्यक्ति २२७* या आत्म-शक्ति की अभिव्यक्ति के माध्यम शरीर, पाँचों इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, चित्त, वाणी तथा दशविध बलप्राण बनते हैं। उनके माध्यम से आत्मा की अधिकांश शक्तियों की जागृति एवं अभिव्यक्ति होती है । परन्तु आत्म-शक्तियों के प्रकटीकरण में, जागरण में वे तभी साक्षात् माध्यम बनते हैं, जब आत्म-स्वभाव या आत्म- गुणों में रमण करने में वे अन्तःकरण एवं बाह्यकरण (उपकरण) साधक एवं सहायक | शास्त्रीय भाषा में तब इनको पण्डितवीर्य कहा जाता है। इसके विपरीत जब ये ही करणद्वय आत्म-शक्तियों के जागरण में साधक या सहायक न बनकर बाधक बनते हैं, विपरीत दिशा में, क्रोधादिवश, अहंकारादि से प्रेरित होकर या हिंसा, असत्य, चोरी, डकैती, हत्या, लूटपाट, आगजनी, वैर- विरोध, द्वेष, लोभ, मोह, मद, मत्सर, स्वार्थ, कामभोग, विषयासक्ति आदि के वश भटक जाते हैं, तब ये आत्मा की निरवालिस शक्ति के रूप में अभिव्यक्त न होकर विकृत एवं शुभाशुभ कर्मबन्धक शक्ति के रूप में अभिव्यक्त होते हैं, तब इन्हें शास्त्रीय भाषा में बालवीर्य कहा जाता है। 'सूत्रकृतांगसूत्र' के आठवें 'वीर्य' नामक अध्ययन में इस तथ्य को बहुत ही स्पष्टता के साथ समझाया गया है । वहाँ संसार की ओर किये जाने वाले पराक्रम को कर्मबन्धकारक और बालवीर्य कहा है, जबकि मोक्ष की ओर किये जाने वाले पराक्रम को पण्डितवीर्य कहा है । तथैव बालवीर्य को सकर्मवीर्य (कर्मबन्धयुक्त) और पण्डितवीर्य को अकर्म (कर्मबन्धरहित ) वीर्य कहा गया है। यहाँ द्रव्यवीर्य की नहीं, भाववीर्य की विपक्षा है। भाववीर्य का स्वरूप है- वीर्यशक्तियुक्त जीव की विविध वीर्य सम्बन्धी लब्धियाँ। भाववीर्य मुख्यतया पाँच प्रकार का है - मनोवीर्य, वाग्वीर्य, कायवीर्य, इन्द्रियवीर्य और 'आध्यात्मिकवीर्य ।' आध्यात्मिक वीर्य (शक्ति) के मुख्य दस प्रकार आध्यात्मिक वीर्य के ‘सूत्रकृतांग नियुक्ति' में मुख्यतया १० प्रकार बताये गए हैं- (१) धृति ( संयम और चित्त में स्थैर्य), (२) उद्यम (ज्ञानोपार्जन, तपश्चरण आदि में आन्तरिक वीर्योल्लास, पुरुषार्थ या उत्साह), (३) धीरता ( परीषहों और उपसर्गों के समय अविचलता), (४) शौण्डीर्य ( त्याग की उच्च कोटि की उत्साहपूर्ण भावना), (५) क्षमाबल, (६) गाम्भीर्य ( अद्भुत, साहसिक या चमत्कारिक कार्य करके भी मद-गर्व-अहंकार न आना, परीषहोपसर्गों से न दबना), (७) उपयोगबल १. (क) 'पानी में मीन पियासी' से भाव ग्रहण (ख) सूत्रकृतांगसूत्र के 'वीर्य' नामक अष्टम अध्ययन का प्राथमिक ( आगम प्र. स.. व्यावर) से भाव ग्रहण, पृ. ३४५ (ग) कम्ममेगे पवेदेंति, अकम्मं वा वि सुव्वता । एहिं दोहिं ठाणेहिं, जेहिं दिस्संति मच्चिया ॥ Jain Education International - सूत्रकृतांग, श्रु. १, अ. ८, गा. २ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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