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________________ * २२६ * कर्मविज्ञान : भाग ९ * सुदर्शन श्रमणोपासक में आत्म-शक्ति (परमात्म-शक्ति से अनुप्राणित ) थी, उस पर अर्जुनमाली यक्षाविष्ट आसुरी शक्ति विलकुल हावी न हो सकी। यह है. आत्म-शक्ति पर किसी भी शक्ति का प्रभाव न होने का ज्वलन्त उदाहरण !' पौद्गलिक वीर्य (शक्ति) का मूल स्रोत आत्मा है। यद्यपि सप्त धातुओं से शरीर निष्पन्न होता है, उसमें वीर्य अन्तिम है। इससे ही शरीर में ओज, तेज प्रतीत होता है तथा वीरता, साहस, पराक्रम एवं शौर्य प्रकट होता है। वस्तु-स्थिति यह है कि शरीर, मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, अंगोपांग, वचन, प्राण आदि सब जड़ पदार्थ हैं, इनमें भी जीव के कर्मों के अनुसार अपने-अपने ढंग की स्व-स्वकार्य करने की क्षमता और शक्ति होती है। इन सब शक्तियों का संवर्धन और विकास भी किया जा सकता है । परन्तु इन सब शक्तियों को शास्त्रीय परिभाषा में 'पौद्गलिक वीर्य' कहा जाता है। अतः शरीरादि पुद्गलों में स्थित वीर्य पौद्गलिक होते हुए भी मूल में आत्मा वीर्य (भाववीर्य शक्ति) गुण से ही प्रकट होता है। उसके निर्माण में, वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से आत्मा का वीर्यगुण जितना प्रगट : होता है, उतना ही, यानी उतने बल वाला ही पौद्गलिक वीर्य प्रगट हो सकता है । यही कारण है कि हाथी की अपेक्षा शरीर छोटा होते हुए भी सिंह में वीर्य (पराक्रम = शक्ति) अधिक होता है। जैनदर्शन का कथन है - शक्ति, पराक्रम, उत्थान, कर्म, बल, पुरुषार्थ, शौर्य, साहस, स्थाम (धृति), उत्साह, पौरुष आदि रूप में वीर्य मूल में आत्मा की वस्तु है । एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक छोटे-बड़े सभी प्राणी स्थूल या सूक्ष्म हलचल, स्पन्दन तथा गमनागमनादि क्रिया या. प्रवृत्ति करते हैं, उन सब में आत्मा का भाववीर्य ( वीरत्व) ही काम आता है । उस वीर्य (शक्ति) के बिना कोई भी प्राणी तन, मन, इन्द्रिय, बुद्धि, प्राण, अंगोपांग आदि से स्वतः कोई भी क्रिया नहीं कर सकते। इन सभी पौद्गलिक पदार्थों की शक्तियों का मूल स्रोत आत्मा है। इन सभी की शक्तियाँ आत्मा से ही प्रादुर्भूत, प्रकट या जाग्रत होती हैं। यह ध्यान रहे कि इन सब पौद्गलिक पदार्थों की शक्ति (वीर्य) संयोगज या पर- प्रेरित है। कोई चेतन (आत्मा) उनको परस्पर जोड़ता है या संयोग करता है, तभी उसमें ऊर्जा शक्ति, तैजस् शक्ति या विद्युत् आदि की शक्ति पैदा होती है। बालवीर्य और पण्डितदीर्य की परिभाषाएँ एक प्रश्न यह है कि आत्मा अमूर्त और अव्यक्त होने से इन्द्रिय-ग्राह्य (इन्द्रिय-प्रत्यक्ष ) नहीं है, आत्मा की आत्म-शक्ति भी प्रत्यक्ष नहीं है। ऐसी स्थिति में आत्म-शक्ति की अभिव्यक्ति कैसे हो सकती है ? इसलिए यह माना गया कि आत्मा १. देखें- राजगृह नगर के सुदर्शन श्रमणोपासक का जीवन-वृत्त, अन्तकृद्दशासूत्र में मोग्गरपाणी नामक अध्ययन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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