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*. ३४ * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु *
से, चारण द्वारा शिकारी को उपदेश से, शालिभद्र को अपनी माता द्वारा श्रेणिक नृप का सिरताज के रूप में परिचय देने से, समुद्रपाल के अशुभ कर्मफल भोगते हुए बध्य चोर को देखकर चण्डकौशिक को अपने पूर्वजन्मकृत अशुभ कर्म के फलस्वरूप सर्पयोनि पाने का रहस्य समझने से सहसा जीवन-परिवर्तन हो जाने के कर्मविज्ञान की विशेषता के ज्वलन्त उदाहरण भी प्रस्तुत किये गए हैं। इसके अतिरिक्त मनुष्यादि चारों गतियों को पाने के कर्म-मूलक कारणों का प्रतिपादन भी जीवन-परिवर्तन का अचूक सन्देशवाहक है। विभिन्न कथाओं में ज्ञानी मुनिवरों से अपने पूर्वकृत दुष्कर्मों का फल जानकर भी अनेक व्यक्तियों के जीवन में आमूलचूल परिवर्तन भी इसकी जीवन-परिवर्तन-विज्ञानता को सिद्ध करते हैं। कर्मवाद : पुरुषार्थयुक्त आशावाद का प्रेरक
— कुछ लोग कर्म का फल तत्काल या इस जन्म में न मिलने की, तथा कतिपय लोग सत्कर्म करने वाले लोगों को अभाव-पीड़ित, फटेहाल व दुःखी और दुष्कर्म करने वालों को सुखपूर्वक मस्ती से जीवन जीते देखकर कर्म-सिद्धान्त से निराश-हताश होकर क्षणिक और कृत्रिम सुख-सम्पन्नता के लिए जैसे-तैसे धन कमाने, मौज-शौक करने लगे, अन्याय-अनीति एवं पापकर्म के रास्ते पर चलकर भी पूर्वकृत पुण्यराशि तथा इस जन्म में शुभ कर्मोपार्जन के अभाव में निराशा ही उनके हाथ लगी। ऐसी और इसी प्रकार की भ्रान्तियों के शिकार लोगों से कर्मवाद कहता है-संवर-निर्जरारूप धर्म अथवा सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तपरूप धर्म ही सुख-शान्ति और समृद्धि का निरापद मार्ग है। कुछ लोग इस भ्रम के शिकार होकर हाथ पर हाथ धरकर
अकर्मण्य-पुरुषार्थहीन होकर बैठ जाते हैं कि कर्म सर्वशक्तिमान् है, वह जैसा चाहेगा, सुख या दुःख देगा. हमारे किये से क्या होगा? फलतः वे न्याय, नीति, धर्म के आचरण करने को अत्यन्त कष्ट, दुःख और पीड़ाकारी समझते हैं। परन्तु कर्मवाद इस प्रकार की भ्रान्ति, निराशा और अकर्मण्यता का निराकरण करके यह आशा और विश्वास दिलाता है कि अच्छे कर्म का फल अच्छा और बुरे कर्म का बुरा मिलता है, इस जन्म में अच्छे कर्म का फल दीनता-हीनता, अभाव-पीड़ितता इस जन्म में किये जाने वाले अच्छे कर्म का फल नहीं, वह किसी पूर्वकृत अशुभ कर्म का फल है। दूसरी बात-कर्मवाद पूर्वजन्म में या इस जन्म में किये गये किसी दुष्कर्म से निराश और अकर्मण्य बनकर बैठे हुए लोगों में भी आशा का संचार करता है-घबराओ मत। जब तक संचित कर्म उदय में नहीं आता है. तब तक तुम इसे सत्कर्म करके शुभ में बदल सकते हो, उक्त का दीर्घकालिक स्थिति को अल्पकालिक और अशुभ रस को शुभ रस में बदल सकते हो। तप, त्याग, व्रत-प्रत्याख्यान से उसकी उदीरणा करके फल देने से पहले ही फल भोगकर उसे क्षीण कर सकते हो। इतने पर भी यदि वह कर्म उदय में आ जाए तो समभाव, शान्ति और धैर्य से उसे भोग (सह) कर उस कर्म को नष्ट कर सकते हो। अतः कर्मवाद का कर्मनिर्जरा का सिद्धान्त स्वयं धर्म में सत्पुरुषार्थ का द्योतक है। अनादिकाल से लगा हुआ कर्मचक्र छूटना या नष्ट होना सम्भव नहीं, इस भ्रान्ति को नष्ट करके भाग्य-परिवर्तन से सम्बद्ध बन्ध से लेकर निकाचन तक दस कारणों के अकाट्य सिद्धान्त का निरूपण करता है। कर्मवाद आत्म-शक्तियों का स्वतंत्रतापूर्वक उपयोग करने की प्रेरणा देता है। आत्मा की शक्ति कर्म की शक्ति से बढ़कर है। इसलिए कर्मवाद आत्मा की शक्तियों को न छिपाकर प्रकट करने के लिए प्रोत्साहन देता है। कर्मवाद और समाजवाद में विसंगति है या संगति ?
भारत में प्राचीनकाल से ग्रामधर्म, नगरधर्म, राष्ट्रधर्म आदि समाज के विविध घटकों के साथ 'धर्म' शब्द जोड़ा गया था, ताकि व्यक्ति स्वेच्छा से न्याय. नीति और अहिंसा, दया, क्षमा, सेवा, सहयोग आदि धर्म के अंगों का स्वेच्छा से पालन करके अपना जीवन सुख-शान्ति और सन्तोष के साथ बिता सके। भारतीय समाजधर्म के सूत्रधार थे-आदि तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव, जिन्होंने नीति, न्याय, धर्म तथा अध्यात्म की व्यासपीठ पर समाज, राष्ट्र और धर्मसंघ की स्थापना की। इस प्रकार के समाजधर्म की नींद आत्मवाद है, जो कर्मवाद, लोकवाद. क्रियावाद को साथ लेकर चलता है। इसके विपरीत वर्तमान में विदेश से आयातित समाजवाद अर्थ और काम-पुरुषार्थ पर आधारित है, अर्थसमानता का, राज्यविहीन राज्य बनाने का. केवल मानव-समाज को क्षणिक राहत दिलाने का एवं सत्ता द्वारा समाज-परिवर्तन का उसका
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