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________________ * कर्म-सिद्धान्त : बिंद में सिंधु * ३३ * में या तो वह सर्वकर्मों से मक्त हो सके.या वह महर्द्धिक उच्चतर देव बन सके। इस प्रकार कर्म-सिद्धान्त की त्रिकालोपयोगिता सिद्ध होती है। कर्म-सिद्धान्त की त्रिकालस्पर्शी उपयोगिता बताने के लिए आगमों में स्पष्ट कहा गया--अतीत का प्रतिक्रमण. वर्तमानकाल में संवर-निर्जरायुक्त पुरुषार्थ और भविष्य में कर्मों से मुक्त होने के लिए प्रत्याख्यान (व्रत, नियम, तप, संयम, त्याग) करो। जैन-कर्मविज्ञान की महत्ता का मूल्यांकन जैन-कर्मविज्ञान की महत्ता का मूल्यांकन इसी से किया जा सकता है कि उसने केवल पानव-जाति के ही कर्मों के आग्नव और संवर. बन्ध, निर्जरा और मोक्ष का विचार नहीं किया अपितु नारक, तिर्यंच और देव आदि पंचेन्द्रियों तथा तीन विकलेन्द्रियों एवं एकेन्द्रिय आत्माओं का भी कर्म-सम्बन्धी उपर्युक्त विचार व्यक्त किया है। कतिपय धर्मों और दर्शनों ने जहाँ केवल मनुष्यगति तथा मनुष्य-जाति का. उसमें भी उसके कामनामूलक या सामाजिक कर्मों तक का ही तथा केवल स्वर्ग-नरक तक का ही विचार किया है, वहाँ जैन-कर्मविज्ञान ने मनुष्यादि चारों गतियों का. मनुष्यों के भी बन्धक-अबन्धक कमों का, शुभ-अशुभ कर्मों और उनके परिणामों का, तथा कर्मों से सर्वथा मुक्तिरूप मोक्षगति तक का विचार किया है। साथ ही जैन-कर्मविज्ञान न संसार की समस्त आत्माओं को निश्चयदृष्टि से परमात्म सदृश वताया है। इतना ही नहीं, बहिरात्मा से परमात्मा बनने के उपाय भी बताये हैं। इतना ही नहीं, आत्मा की वर्तमान में अशुद्ध दशा एवं उनके कारणों का वर्णन भी सांगोपांग किया है। साथ ही जैन-कर्मविज्ञान ने सांसारिक जीवों के भेद-प्रभेद का तथा उनकी विभिन्न अवस्थाओं का, जीवों की अनन्त भिन्नता का शरीर, इन्द्रिय, भोग, वेद, कषाय आदि कारणों की दशा से गुणस्थानों में, आत्म-विशुद्धि में तारतम्य का, १४ मार्गणाओं द्वारा भलीभाँति सर्वेक्षण भी किया है. जोकि अन्य दर्शनों और धर्मशास्त्रों में दुर्लभ है। कर्मों के स्वरूप, स्त्रोत, वन्ध तथा उनके भेद-प्रभेद बताकर ही जैन-कर्मविज्ञान ने छुट्टी नहीं पा ली, किन्तु आते हुए नये कर्मों को रोकने, पूर्वबद्ध कर्मों से छूटने तथा कर्मों से पूर्णतया मुक्त होने का उपाय भी संवर, निर्जरा और मोक्ष के रूप में बताया है। शरीरादि परभावों के साथ रहते हुए भी इनसे भिन्नता का तथा स्वभाव-रमणता का विज्ञान भी इसने बताया है। इसने प्रत्येक जीव के जन्म से लेकर मृत्यु तक ही नहीं, अनन्त-अनन्त जन्मों में साथ-साथ रहने वाले कर्म से सम्बन्धित प्रत्येक प्रश्न का सुव्यवस्थित एवं क्रमबद्ध चिन्तन प्रस्तुत किया है। साथ ही विभिन्न कर्मों के बन्ध, जीव के परिणाम आदि को लेकर उनके फल का भी वैज्ञानिक दृष्टि से व्यापक विश्लेषण भी किया है। जैन-कर्मविज्ञान की महत्ता के ये सर्वतोभद्र मापदण्ड हैं। जैन-कर्मविज्ञान की विशेषता जैन-कर्मविज्ञान समग्र जीवन के स्थूल-सूक्ष्म कार्यकलापों, जन्म से लेकर मृत्यु तक की विविध अवस्थाओं तथा उनके कारण और निवारणोपाय पर विशद प्रकाश डालने वाला सर्वांगीण जीवनविज्ञान है। इतना ही नहीं, यह जीव की कर्मावत दशा के साथ-साथ कर्ममुक्त दशा का, एकेश्वरवाद के बदले अनन्त . परमात्मवाद का, आत्मा से परमात्मा बनने की कला का, अनन्त ज्ञानादि चतुष्टय-प्राप्ति के उपाय का, अन्तिम ध्येय-प्राप्ति के विवेक का. मानव-जाति से भी आगे प्राणिमात्र के प्रति समभाव और आत्मौपम्यभाव रखने का, पूर्ववद्ध संचित कर्मों की स्थिति, अनुभाग तथा दशा में परिवर्तन का, कर्मफल की स्वतः संचालित व्यवस्था का प्ररूपक, प्रशिक्षक, नियामक एवं सजातीय कर्मप्रकृति में परिवर्तन का प्रेरक है। जैन-कर्मविज्ञान की विशेषता इन पर से आँकी जा सकती है। जैन-कर्मविज्ञान : जीवन-परिवर्तन का विज्ञान • जैन-कर्मविज्ञान जीवन-परिवर्तन का विज्ञान है. क्योंकि यह जीवन के साथ जुड़ी हुई अच्छी-बुरी आदतें, रुचियाँ, स्वभाव, दृष्टि, चिन्तन या विचार, परिणाम, मन-वचन-कायजनित प्रवृत्तियाँ, लेश्याएँ, कषाय, कामवासना, बौद्धिक मन्दता-तीव्रता. विभिन्न गति, योनि, पर्याप्ति, प्राण, शरीर आदि सभी को आत्म-बाह्य कर्मोपाधिक बताकर इनमें तथा जीवन की गतिविधि में परिवर्तन भी पूर्ण संभावना का निरूपण करता है। कर्मविज्ञान के रहस्य को सुनने तथा उस पर चिन्तन-मनन करने से अनेक व्यक्तियों का जीवन-परिवर्तन हुआ है, हो सकता है। विशुद्धप्रज्ञ कपिलकेवली द्वारा ५00 चोरों को कर्मफलात्मक उपदेश Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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