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* ३२ * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु *
पर अमल नहीं करते। जड़ कर्म कोई फल देने वाला नहीं, न ही ईश्वरादि कोई इस समय फल देते हैं, अतः वे इस भ्रान्तिपूर्ण विचार से निःसंकोच होकर अनैतिक कर्म करते रहते हैं। अतः कर्मविज्ञान नैतिकताविहीन तथा आस्थाहीन व्यक्तियों के पारिवारिक, सामाजिक या राष्ट्रीय जीवन की विशंखलता का चित्रण विभिन्न युक्ति-प्रयुक्तियों और प्रत्यक्ष अनुभवों के आधार पर किया गया है। अतः कर्म-सिद्धान्त परिवार, राष्ट्र या समाज आदि में सुख-शान्ति, समृद्धि और सुरक्षा के लिए नैतिकता से युक्त धार्मिकता (सप्त कुव्यसन-त्याग, परिवारादि में परस्पर वात्सल्य, सहयोग, सहिष्णुता की आधार भूमि पर अहिंसा, संयम, तप आदि) के आचरण की बात कहता है। नैतिकता के इस आचरण के फलस्वरूप पूर्वकृत कर्म नष्ट होंगे; क्रूरता, निर्दयता, अमानवता के कारण होने वाले अशुभ कर्मों का निरोध होगा, प्रशस्त शुभ योगों में प्रवृत्ति से शुभ योग-संवर सहज में होता जाएगा। सामाजिक सन्दर्भ में उपयोगिता कितनी और कैसी ?
इसके पश्चात् जो कर्मविज्ञान का सिद्धान्त विश्वव्यापी और सार्वजनीन है, तथा जो अतिसूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों से लेकर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च जीवों, नारकों, देवों और मनुष्यों तक के प्रत्येक भव की जीवन-यात्रा को प्रारम्भ से लेकर अन्त तक स्पर्श करता है; उसकी सामाजिक क्षेत्र (मानव-समाज के सभी घटकों) में क्या उपयोगिता है ? इस प्रश्न को लेकर कतिपय पाश्चात्य समाजशास्त्रियों के आक्षेप-प्रत्याक्षेप हैं, जिनका समाधान जैन-कर्मविज्ञान ने जीव द्वारा मानव के प्रति किये जाने वाले नौ प्रकार के पुण्यों तथा विविध प्रकार के सम्यक् दान, शील, तप एवं भाव से निष्पन्न होने वाले. तथा तीर्थंकरों द्वारा दीक्षित होने से पूर्व दिये जाने वाले वीदान, धर्मोपदेश, संध-स्थापना आदि तथा उनके अनुगामी साधु-साध्वियों द्वारा दिये जाने वाले नैतिक-धार्मिक उपदेश, प्रवचन, धर्म और मोक्ष की तथा नौ तत्त्वों की आध्यात्मिक प्रेरणा, किसी भी समस्या के विषय में श्रुत-चारित्रधर्म या संवर-निर्जरारूप धर्म की दृष्टि से समाधान, मार्गदर्शन आदि सब मानव-जीवन-सम्बन्धी प्रश्नों को लेकर सामाजिक सन्दर्भ में कर्मों के आसव. बन्ध. संवर. निर्जरा और मोक्ष की प्ररूपणा करता है, इससे इस क्षेत्र में कर्मविज्ञान की उपयोगिता स्वतः सिद्ध है। साथ ही व्यक्ति, समाज और समष्टि की दृष्टि से कर्म कब बन्धकारक होता है, कब शुभ कर्मबन्धक (पापकर्मबन्धरहित) होता है और कब अबन्धक होता है ? इसका शास्त्रीय प्रमाणों और युक्तियों सहित निरूपण किया है। कर्म-सिद्धान्त की त्रिकालोपयोगिता
कर्म-सिद्धान्त केवल जीव के वर्तमान पर ही नहीं, अतीत और अनागत जीवन पर भी प्रकाश डालता है। परन्तु कतिपय दार्शनिकों के प्रतिपादित भ्रान्त एवं एकान्त मान्यता का खण्डन करता है कि जीव का जैसा अतीत था, वैसा ही उसका वर्तमान होगा, और वर्तमान के आधार पर ही भविष्य का जीवन होगा। किन्तु त्रिकालज्ञाता-द्रप्टा वीतराग महर्षि कहते हैं-यद्यपि जीव का भूत, भविष्य या वर्तमान कर्मों के अनुसार होता है, किन्तु ऐसी एकान्त प्ररूपणा यथार्थ नहीं हैं कि अतीत के अनुसार ही जोव का वर्तमान
और भविष्य होगा। कर्म-सिद्धान्त के अनुसार अतीत में निकाचनारहित बँधे हुए कर्म यदि सत्ता में (संचित) पड़े हैं तो वर्तमान में जीव अपो पुरुषार्थ से शुभ कर्म को अशुभ में, अशुभ कर्म को शुभ में परिवर्तित कर सकता है, तदनुसार उसका भविष्य भी सदूर अतीत के अनुसार न होकर वर्तमान के अतीत के अनुसार घटित होगा। इसलिए कर्म-सिद्धान्त के पुरस्कर्ताओं की प्रेरणा है कि अतीत को जानो, वर्तमान में सत्पुरुषार्थ करके कर्मनिरोध या कर्मक्षय द्वारा बाजी सुधार लो, ताकि भविष्य भी उज्ज्वल बने। इसके लिए भविष्य का भी विचार करो। इसके ज्वलन्त उदाहरण-हरिकेशबल मुनि, अर्जुन मुनि, मेघकुमार मुनि, मृगापुत्र मुनि आदि हैं। अतीत में किये हुए अशुभ कर्म के फलस्वरूप वर्तमान में प्राप्त अनिष्ट-संयोग-इष्ट-वियोग को जानकर हीनता-दीनता-अकर्मण्यता की भावना न लाओ, उस भूतकालीन जीवन से प्रेरणा लेकर तप, संयम, धर्म में विवेकपूर्वक पुरुषार्थ करो। यदि अतीत के शुभ कर्मवश तुम्हें वर्तमान में सुख-सुविधा-सम्पन्न जीवन मिला है तो उसे गर्व, मद, अहंकार, कषाय एवं प्रमाद की भावना से न खोकर वर्तमान में शुद्ध धर्म में पुरुषार्थ करो तथा पूर्वोक्त विपन्न-सम्पन्न अवस्थाओं में संवर-निर्जरारूप धर्म में पुरुषार्थ करो ताकि भविष्य
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