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________________ * कर्म - सिद्धान्त: बिंदु में सिंधु *३१* दैनन्दिन व्यवहार में अच्छे कर्म करने चाहिए। भारत का प्रायः प्रत्येक व्यक्ति इस सिद्धान्त को जानता हुआ भी व्यवहार में लोभ, स्वार्थ, अहंकार और प्रमाद के कारण अपने जीवन को पापकर्म के दलदल में डालता है। दैनन्दिन व्यवहार में कर्मविज्ञान की प्रेरणा पापकर्मों से बचने के लिए कर्मविज्ञान साधु-साध्वियों को ही नहीं, गृहस्थवर्ग को भी यही प्रेरणा देता है कि जीवन की मन-वचन-काया से होने वाली दैनन्दिन प्रत्येक क्रिया, चर्या का प्रवृत्ति यातनापूर्वक, विवेकपूर्वक करो; क्योंकि तुम्हारे ऊपर, नीचे और तिरछी दिशाओं में सर्वत्र पापकर्म का प्रवाह (स्रोत) चल रहा है. उनको रोकने- उनसे बचने का पराक्रम करोगे, तो एक दिन अकर्मा (अबन्धक कर्मकर्ता) बन सकोगे। वह व्यावहारिक जीवन में कर्मबन्ध से अपनी आत्मा को बचाने के लिए यह परामर्श देता है कि तुम एक ओर से कर्मों की आम्रवरूपी बाढ़ को संवर से रोको, दूसरी ओर से पूर्वबद्ध पापकर्मों की बाह्यआभ्यन्तर तप, त्याग, प्रत्याख्यान, धर्माचरण, व्रताचरण परीषह-सहन आदि द्वारा बिना किसी कामनावासना के विकल्प के निर्जरा ( अंशत: कर्मक्षय) करते जाओ। अगर तुम्हारे जीवन में कोई दुःख, पीड़ा, रोग, संकट, विपत्ति या उपद्रव आ पड़ा हो, उस समय भी तुम उसे अपने किसी पूर्वबद्ध अशुभ कर्म का फल मानकर उसे समभाव, धैर्य, एवं शान्ति के साथ सहन करो, उसकी अच्छी-बुरी प्रतिक्रिया मत करो, न ही काल, देव, भगवान या निमित्तों पर दोषारोपण करो, तो तुम्हारा जीवन संवर- निर्जरा धर्ममय हो सकेगा। कर्मविज्ञान कहता है कि “हे मानव ! तू ही अपना भाग्यविधाता, त्राता, अपने सुख-दुःख का निर्माता, पाप-पुण्य का कर्ता-धर्ता है। दुःख और विपत्ति के समय कर्म- सिद्धान्त मार्गदर्शक या निर्देशक बनकर कहता है. इस समय आकुल-व्याकुल न होकर अपना उपादान देखो, आत्म-निरीक्षण करो, किंकर्तव्यविमूढ़ मत बनो, धैर्यपूर्वक उसे सहन करो. आशा रखो कि दुःख आया है तो वह चला भी जाएगा, और अधिकाधिक सावधान होकर सत्कर्त्तव्य कर्म करो, या शुद्ध धर्म का आचरण करो । दुःख का कारण स्वयं में ढूँढ़कर अनुकूलता और प्रतिकूलता दोनों में सम रही। न तो दीनता-हीनता लाओ और न ही गौरवगान करके अहंकार-ममकार करो। इस प्रकार कर्मविज्ञान दैनन्दिन व्यवहारों की व्याख्या भी कर्म सिद्धान्त के साथ संगति बिटाकर करता है। नैतिकता के सन्दर्भ में कर्मविज्ञान की उपयोगिता हिंसा, असत्य, चोरी आदि अनैतिकताओं (पापकर्मों) का दुःखद फल नरक-तिर्यंचगति तथा मनुष्यगति में भी अंग-विकलता बताकर एवं मोह-मूढ़तावश बोधिरहित, तथा दुर्दशाग्रस्त स्थिति का चित्रण करके नैतिकतायुक्त जीवन जीने की प्रेरणा देकर कर्मविज्ञान ने नैतिकता के सन्दर्भ में भी अपनी उपयोगिता सिद्ध कर दी है। अनैतिकता से युक्त दुष्कर्मों का दुष्परिणाम बताकर नैतिकतापूर्ण जीवन जीने की प्रेरणा या उपदेश देने के अनेक उदाहरण शास्त्रों में यत्र-तत्र मिलते हैं। साथ ही शुभाशुभ कर्म की दृष्टि से ही चारों प्रकार की गति का आयुष्यबन्ध होने के कारण बताये गए हैं। कतिपय धर्म-सम्प्रदायों में इस भ्रान्ति के शिकार होकर लोग बेधड़क होकर पापकर्म तथा अनैतिक आचरण करते रहते हैं कि कयामत के दिन, या मृत्यु के अवसर पर हम खुदा, गॉड या परमात्मा से क्षमा माँग लेंगे और हमारे पापकर्मों के फल से छुटकारा मिल जाएगा। परन्तु केवल क्षमा माँग लेने मात्र से और जानबूझकर पापकर्म या अनैतिक आचरण या व्यवहार करते रहने से कदापि पापकर्मों के फल से छुटकारा नहीं मिल सकता । पापकर्मों से छुटकारा तभी मिल सकता है कि वे व्यक्ति स्वयं पापकर्मों का त्याग करें, जानबूझकर कोई भी अनैतिक आचरण या पापकर्म न करें. यदि अनजान में कोई पापकर्म हो गया है तो उसे वीतराग प्रभु की साक्षी से निःसृह सद्गुरु के समक्ष आलोचना, आत्म-निन्दना, गर्हणा, प्रायश्चित्त, प्रतिक्रमण एवं क्षमापना करके आत्म शुद्धि कर लें। पापकर्म के फल का प्रदाता, उससे त्राता या क्षमा प्रदाता कोई ईश्वर, गॉड, खुदा या कोई अन्य शक्ति नहीं, उसके वे कर्म ही उसे फल-प्रदान करते हैं; किन्तु फल प्रदान करने में निमित्त कोई भी हो सकता है । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव एवं भव आदि नोकर्म फल प्रदान में सहायक हो सकते हैं । इस्लाम और ईसाईधर्म में और वैदिकधर्म में नैतिक आचरण करने की आज्ञाएँ हैं, परन्तु पूर्वोक्त भ्रान्तियों के कारण प्रायः अनेक लोग उस Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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