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| कविज्ञान : भाग २ का सारांश
कर्म की उपयोगिता, महत्ता और विशेषता कर्म के अस्तित्व और वस्तुत्व (यथार्थ स्वरूप) का प्रतिपादन करने के पश्चात् जब तक उसका यथार्थ मूल्य निर्णय नहीं किया जाता, यानी जब तक उसकी विशेषता, महत्ता का मूल्यांकन विविध दृष्टियों से नहीं किया जाता, तब तक उसकी उपयोगिता में सन्देह रह जाता है। इसलिए द्वितीय भाग के चतुर्थ खण्ड में कर्मविज्ञान की विशेषता, महत्ता और उपयोगिताओं की सर्वांगीण और सर्वक्षेत्रीय दृष्टिकोण से चर्चा-विचारणा प्रस्तुत की गई है। आध्यात्मिक क्षेत्र में कर्मविज्ञान की उपयोगिता
सर्वप्रथम आध्यात्मिक क्षेत्र में कर्मविज्ञान की उपयोगिता पर विचार करते हुए कहा गया-प्रत्येक प्राणी के जन्म-जन्मान्तर की संसार-यात्रा, जीवन-यात्रा और शरीर-यात्रा के साथ कर्म लगा हुआ है, वह मोक्ष-प्राप्ति के पूर्व तक लगा रहेगा। अतः यह कहकर इसकी उपेक्षा करने से काम नहीं चलेगा कि कर्म-परमाणु तो स्वभाव को विकृत करने वाले, आत्म-शक्ति के प्रतिबन्धक, अवरोधक और आवारक परभाव हैं। इसलिए मुमुक्षु आत्मार्थो को इन्हें सर्वथा त्याज्य समझने चाहिए, न ही इनसे कोई वास्ता रखना चाहिए। किन्तु कर्मविज्ञान यह भी समझाता है कि प्राणी जब तक संसारस्थ है, तब तक गृहस्थों को ही नहीं, साधु-साध्वियों, केवलज्ञानियों और तीर्थंकरों तक को तन, मन, वाणी, बुद्धि, अन्तःकरण, इन्द्रियाँ आदि निर्जीव; तथा संघ, परिवार, गण, कुल, ग्राम, नगर, राष्ट्र, अन्य मानवों तथा जीवों आदि सजीव पर-पदार्थों से; तथा आहार, उपकरण, मकान, वस्त्र आदि पर-पदार्थों, पुद्गलों आदि से जीवन-यात्रा के लिए एक या दूसरे प्रकार से वास्ता पड़ेगा, सम्बन्ध रखना पड़ेगा। सम्बन्ध रखते हुए भी कर्मविज्ञान यह प्रेरणा देता है, अगर उन पर-पदार्थों के प्रति राग-द्वेष, मोह-द्रोह, आसक्ति-घृणा या क्रोधादि कषाय के रूप में विकारभाव-विभाव आया तो वहाँ कर्मबन्ध अवश्यम्भावी है। अगर उनके प्रति राग-द्वेप आदि विभाव नहीं आने दिया तो सजीव-निर्जीव परभावों के साथ सम्बन्ध रखते हुए भी कर्मबन्ध नहीं होंगे, आत्मा का ऊर्ध्वमुखी विकास होगा। इस प्रकार कर्मविज्ञान की दृष्टि से कर्म संसारी अवस्था में सर्वथा त्याज्य नहीं, अन्त तक उपादेय है, किन्तु परभावों के प्रति रागादि विभावों के त्यागपूर्वक या शुभ भावों के साथ सम्बन्ध रखने में। फिर कर्मविज्ञान सर्वज्ञोक्त होने से सर्वाधिक उपयोगी एवं प्रेरक है। क्योंकि इसमें कर्मों की राशि को आत्मा से पृथक् करके अपनी अनन्त चतुष्टयी अमर्यादित तथा अपनी आत्म-शक्तियों से सुशोभित एवं जाग्रत करने की विधा की प्रेरणा है। कर्मविज्ञान भौतिक शक्ति के चमत्कारों की अपेक्षा कर्मक्षय और कर्मनिरोध करने की आत्म-चातुरी तथा आत्म-स्वरूपोपलब्धि के तथा आध्यात्मिक शक्ति के चमत्कारों को बढ़कर बताता है। मुमुक्षु आत्मा के लिए कर्मविज्ञान दर्पण के समान आत्मा का स्पष्ट दर्शन कराता है। कर्मविज्ञान के अभ्यास से आत्मा में निराकुलता और शान्ति का अनुभव होता है। साथ ही कर्मविज्ञान वैभाविक और स्वाभाविक दोनों अवस्थाओं का ज्ञान कराता है। वह आत्म-शक्ति को कर्म-शक्ति से प्रबल बनाता है। कर्मविज्ञान अध्यात्म हिसाब को प्रगट करने की कुंजी है। वह आत्म-शक्तियों के प्रकटीकरण में तथा अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाने में प्रबल सहायक है। इसमें आध्यात्मिक उत्क्रान्ति के लिए यथाप्रवृत्तिकरणादि तीन सोपानों से साधक आध्यात्मिक ऊर्ध्वारोहण कर सकता है। व्यावहारिक जीवन कर्म-सिद्धान्त की उपयोगिता
कर्म-सिद्धान्त की व्यावहारिक जीवन में उपयोगिता तो सर्वविदित है। कर्म-सिद्धान्त यह स्पष्ट प्रतिपादित करता है कि 'अच्छे कर्मों का फल अच्छा होता है, बुरे कर्मों का बुरा' यह सोचकर व्यक्ति को
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