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________________ * परमात्मभाव का मूलाधार : अनन्त शक्ति की अभिव्यक्ति * २२३ * चक्रवर्ती बने। उन्होंने अब तक अर्जित, जाग्रत और अभिव्यक्त की हुई आत्म-शक्ति को, समस्त की-कराई संयम-साधना को नष्ट कर दी। चक्रवर्ती के भव में भी उसे किसी भी प्रकार से नीति, धर्म एवं सदाचार के प्रति रुचि, श्रद्धा और बोधि प्राप्त नहीं हुई। फलतः आत्म-शक्ति की जागृति से मोक्ष-प्राप्ति के बदले उसे नरक प्राप्ति हुई। आत्म-शक्ति जाग्रत होने के पश्चात् मार्गदर्शन, शुद्ध उपादान न रहे तो सब तरह से बर्बादी आशय यह है कि आत्म-शक्ति के जाग्रत होने के बाद यदि मार्गदर्शक न रहे अथवा अपना उपादान शुद्ध न रहकर मोहाविष्ट हो जाए तो व्यक्ति भूत-पिशाचाविष्ट की तरह आवेशग्रस्त, कोपाविष्ट या अहंकारग्रस्त होकर भयंकर अनर्थ कर बैठता है। अपनी की-कराई वर्षों की आत्म-शक्ति की साधना को कुछ ही क्षणों में चौपट कर देता है, आराधक से वह विराधक बन जाता है। अर्जित महामूल्य आत्म-शक्ति को नष्ट-भ्रष्ट करके .. आसुरी शक्ति में बदल दी विश्वभूति ने भगवान महावीर के जीव को सम्यग्दर्शन प्राप्त होने के बाद १६३ भव की एक घटना है। उस भव में राजगृह नगर के राजा विशाखनन्दी के छोटे भाई विशाखभूति के पुत्र विश्वभूति नामक राजकुमार थे। प्रबल विषयासक्ति के संस्कारवश कतिपय कारणों से विशाखनन्दी नृप के साथ उनका संघर्ष हुआ। विशाखनन्दी द्वारा कपटपूर्ण षड्यंत्र रचे जाने के कारण विश्वभूति के मन में उसके प्रति द्वेष की गाँठ बंध गई। राजा विशाखनन्दी को अपने शारीरिक बल का परिचय देने हेतु उद्यान के द्वारपाल के सामने बेल के पेड़ को इतनी जोर से हिलाया कि उसके सभी फल टप-टप नीचे गिरने लगे। फिर शक्तिमद के आवेश में आकर कहा-“देख ले, मेरी शक्ति को। मैं चाहूँ तो तुम सब के सिर धड़ से अलग कर दूं। परन्तु मैं बुजुर्गों पर अपनी शक्ति आजमाना नहीं चाहता। परन्तु मेरे विरोध में उन्होंने जो षड़यंत्र रचा, उससे मेरे मन में यह निश्चय हो गया कि संसार में सर्वत्र स्वार्थ, अहंकार और राग-द्वेष का साम्राज्य है। मुझे नहीं चाहिए राज्य, सम्पत्ति और संसार का रागरंग ! मुझे अब यहाँ रहना ही नहीं है।" यों कहकर विश्वभूति किसी से कहे बिना ही वहीं से वन की ओर चल दिया। .. सौभाग्य से उसे वन में संभूतिविजय नामक मुनिवर मिल गए। विश्वभूति उनके चरणों में दीक्षित हो गए। मुनि-दीक्षा लेने के पश्चात् उनका मन एवं कषाय १. देखे-ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती (सम्भूति के जीव) का जीवन-वृत्त, उत्तराध्ययन, अ. १३ तथा त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र, पर्व ९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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