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________________ * २२२ * कर्मविज्ञान : भाग ९ * और स्वयं को महान् समझने लगता है। इस कारण इन सब प्राप्त शक्तियों का उत्तम योग भी उसके लिए पतन के कारण हो जाते हैं। वह अपनी उपलब्धियों और शक्तियों के मद में उन्मत्त होकर उनको पचा नहीं पाता । दूसरों के प्रति अनुदार, स्वार्थी और अहंकारी बन जाता है; जबकि आत्मवान् के लिए शास्त्र - प्रतिपादित छहों स्थानों की उपलब्धियाँ और शक्तियाँ उत्थान एवं आत्म-विकास की हेतु बनती हैं। क्योंकि ज्यों-ज्यों उसमें श्रुत ( शास्त्रज्ञान ), तपश्चरण या पूजा-सत्कार एवं विविध उपलब्धियों में वृद्धि होती. है, त्यों-त्यों वह अधिकाधिक विनम्र, उदार और सहिष्णु बनता है । ' अतः सुषुप्त शक्तियों के जाग्रत या उपलब्ध होने के पश्चात् पूर्वोक्त आत्मवान् ही उन्हें सँभाल या पचा सकता है, उन शक्तियों का यथार्थ उपयोग भी कर सकता है । किन्तु अनात्मवान् साधक तप-संयम के फलस्वरूप आत्म-शक्तियों के जाग्रत, अनावृत और उपलब्ध होने पर उन्हें पचा नहीं पाता, वह चमत्कार-प्रदर्शन में भोगों की प्राप्ति आदि का निदान करके या अपनी प्रसिद्धि और आडम्बर में पड़कर आत्म-शक्ति की साधना को विस्मृत और चौपट कर देता है। अनात्मवान् गोशालक को तेजोलेश्या की शक्ति प्राप्त हुई थी, परन्तु उसने न तो उस शक्ति को सँभाला, न ही सदुपयोग किया। बल्कि भगवान महावीर के दो शिष्यों - सर्वानुभूति और सुनक्षत्र नामक मुनियों को तेजोलेश्या से भस्म कर डाला था। फिर भगवान महावीर पर भी उसने तेजोलेश्या का प्रहार किया, किन्तु उनकी आत्मिक शक्ति के आगे गोशालक की आसुरी शक्ति ने उसी का सर्वनाश कर डाला। सम्भूति मुनि को उग्र तप के प्रभाव से पुलाक आदि लब्धि प्राप्त हो गई थी, किन्तु जब नमुचि प्रधान ने उन्हें नगर से निष्कासित करवा दिया तो उस अपमान की भयंकर प्रतिक्रियास्वरूप उन्होंने नगर पर पुलाकलब्धि का प्रयोग किया। नगर में चारों ओर आग के कारण धुएँ के बादल उठने लगे। चक्रवर्ती को कारण मालूम हुआ तो सम्भूति मुनि का कोप शान्त करने हेतु राज- परिवार और रानी सहित चक्रवर्ती उन्हें वन्दना और प्रार्थना करने पहुँचा । उस समय चक्रवर्ती की रानी के कोमल केशपाश के स्पर्श से सम्भूति मुनि ने उससे प्रभावित होकर नियाणा ( निदान कुसंकल्प) किया- "मेरी तपःशक्ति के फलस्वरूप मुझे भी ऐसा ही चक्रवर्तीपद और रानी मिले ।” उनके भ्राता चित्त मुनि ने ऐसा न करने और इसका प्रायश्चित्त लेकर आत्म शुद्धि करने के लिए बहुत समझाया, मगर वे न माने । फलस्वरूप अगले भव में वे ब्रह्मदत्त = १. छट्टाणा अणत्तवओ अहिताए असुभाए अखमाए अणीसेसाए अणाणुगामियत्ताए भवति, तं जहा - परियाए, परियाले सुते तवे लाभे पूया -सक्कारे । छट्टाणा अत्तवतो हिताए सुभाए खमाए णीसाए आणुगामियत्ता भवति, तं जहा - परियार परियाले सुते तवे लाभे पूया सकारे । - स्थानांगसूत्र, स्था. ६, सू. ३३, पृ. ५४२ व्याख्या २. देखें - भगवतीसूत्र, श. १५ में गोशालक का जीवन-वृत्त । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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