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________________ * २१६ * कर्मविज्ञान : भाग ९ * ___ अभी मरीचि को तीर्थंकर आदि की शक्ति अभिव्यक्त होना तो दूर रही, उपलब्ध भी नहीं हुई थी; फिर भी भविष्य में प्राप्त होने वाली उत्कृष्ट शक्तियों से सम्पन्न पदवियों की बात सुनकर ही वे मद करने लगे। पहले तो मरीचि ने मुनित्व की साधना गुप्त-प्रच्छन्न-सुषुप्त आत्म-शक्तियों के विकास के लिए अंगीकार की थी। उन्होंने समझ लिया था कि आत्म-शक्तियाँ जब तक प्रच्छन्न और सुषुप्त रहेंगी, तब तक कोई निष्पत्ति नहीं होगी। परन्तु आत्म-शक्तियाँ जाग्रत करने की साधना के दौरान मन, वचन, काया, प्राण अन्तःकरण और बाह्यकरण (इंन्द्रियगण) की जो माँगें थीं; विषयों के बीहड़ वन में भटकाने वाली सुख-सुविधाओं, मोहक प्रलोभनों एवं मनोज्ञ पर-पदार्थों के मोहक जाल में फँसाने वाली जो राग-द्वेष-मोह-कषायादि की कल्पनाएँ थीं, उनसे स्वयं (आत्मा) को बचाकर सिर्फ आत्म-भावों-आत्मा के मूल गुणों-स्वभावों में रमण करना था, उससे वे भटक गए, बहक गए-तन, मन-प्राण के चक्कर में। फलतः आत्म-शक्तियाँ जाग्रत होती-होती अवरुद्ध हो गईं। आत्म-शक्ति जाग्रत होने के प्रथम दौर में ही मरीचि परभावों-विभावों में भटककर सम्यक्मार्ग से दूर चले गए। वे यह विवेक भूल गए कि मैंने किस उद्देश्य से मनित्व अंगीकार किया था? मुझे अपनी आत्म-शक्तियाँ कहाँ लगानी थीं और मैं उन्हें कहाँ लगा बैठा? आत्म-शक्ति की साधना : परमात्म-शक्तिरूप स्वभाव को जगाने के लिए है __ प्रश्न होता है-“शक्ति तो आत्मा में पड़ी ही है, फिर उसकी साधना क्यों की जाए?" इसका समाधान यह है कि शक्ति तो एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक में, सामान्य गृहस्थ से लेकर उच्च, सर्वोच्च साधक तक में पड़ी है, परन्तु है वह सुषुप्त, अव्यक्त, आवृत; उसकी जागृति, अभिव्यक्ति या अनावरणता सबमें नहीं होती। शक्ति-सम्पन्न होते हुए भी कुछ ही मानव अपनी सुषुप्त शक्तियों को जाग्रत, अभिव्यक्त या अनावृत कर पाते हैं। अधिकांश नर-नारियों की शक्ति सोई रहती है, कुण्ठित और आवृत रहती है। जिसकी शक्ति जाग्रत, प्रकट और अनावृत हो जाती है, वह प्रज्वलित अग्नि की भाँति देदीप्यमान होकर क्रियाशील और सार्थक जीवन व्यतीत कर सकता है। जिसकी शक्ति जाग्रत नहीं होती, उसकी शक्ति निकम्मी, निरर्थक और निष्फल चली जाती है। अतः आत्मिक-शक्ति को जगाने के लिए विधिवत् साधना करना अत्यन्त आवश्यक है। वस्तुतः आत्म-शक्तियों का जागरण आत्मा को परमात्म-शक्तिरूप स्वभाव से परिपूर्ण बनाने के लिए है, जो प्रत्येक आत्मार्थी मुमुक्षु साधक की साधना का मुख्य उद्देश्य है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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