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________________ * परमात्मभाव का मूलाधार : अनन्त शक्ति की अभिव्यक्ति * २१५ * एक बार भरत चक्रवर्ती ने भगवान ऋषभदेव से सविनय पूछा - " भगवन् ! आपके समवसरण (धर्मसभा) में कोई ऐसा सुपात्र आत्मा है, जो भविष्य में तीर्थंकर होने वाला हो ?” प्रभु ने उत्तर दिया- " भरत ! तेरा पुत्र और मेरा गृहस्थपक्षीय पौत्र–मरीचि, जो अभी समवसरण के बाहर त्रिदण्डी के वेश में बैठा है, वह इस चौबीसी में वर्धमान महावीर नाम का अन्तिम तीर्थंकर होगा। पहले वह एक बार वासुदेव होगा और एक बार चक्रवर्ती होगा । यों तीन बड़ी पदवियों का धारक होगा । " यह सुनते ही भरत चक्रवर्ती के अन्तर में प्रसन्नता हुई । मेरा पुत्र तीर्थंकर आदि तीन उच्च पदों का धारक बनेगा, इस बात का मद या गर्व भरत के मन में नहीं हुआ, किन्तु भावी तीर्थंकर के प्रति आदर और भक्तिभाव जगा । अतः समवसरण के बाहर, जहाँ त्रिदण्डी मरीचि बैठा था, वहाँ भरत चक्रवर्ती आए और विधिवत् उन्हें वन्दन-नमन किया। मरीचि आश्चर्य और प्रश्नसूचक दृष्टि से भरत की ओर देखने लगे। भरत जी उनका आशय समझकर बोले - " महात्मन् मरीचि ! मैं आपके वेश को वन्दन नहीं करता, किन्तु भगवान ऋषभदेव के कथनानुसार भविष्य में आप अन्तिम तीर्थंकर होंगे, इस नाते वन्दन करता हूँ । यद्यपि उनके कथनानुसार आप. प्रथम वासुदेव और चक्रवर्ती भी होने वाले हैं। परन्तु मेरा नमन उन पदों को नहीं है, मेरा नमन सिर्फ आपके भावी तीर्थंकरत्व को है । " यह सुनते ही मरीचि के मन में समता, अनासक्ति एवं निश्चय रत्नत्रय के प्रति तथा आत्म-स्वभाव के प्रति श्रद्धा - प्रतीति की दृढ़ता आनी चाहिए, उसके बदले गर्व उत्पन्न हुआ, आत्म-भावों का नाशक कषायभाव उछला। कषायभाव का निमित्त • मिलने पर उसके वशीभूत न होकर अपने आत्म-भावों में स्थिर रहना और अपनी आत्म-शक्तियों का संगोपन करना बहुत कठिन है। मरीचि भी कुलमद के आवेश में कषायभाव के. निमित्ताधीन होकर नाचने लगे “आद्योऽहं वासुदेवानां, पिता मे चक्रवर्तिनाम् । पितामहो जिनेन्द्राणां ममाऽ हो उत्तमं कुलम् !” - अहो ! मेरा कुल कितना उत्तम है ? मैं प्रथम वासुदेव बनूँगा, मेरे पिता प्रथम चक्रवर्ती हैं और मेरे पितामह प्रथम तीर्थंकर हैं। मैं भी भविष्य में वासुदेव, चक्रवर्ती और अन्तिम तीर्थंकर इन तीन पदों का धारक बनूँगा । यों कहते-कहते आवेश में आकर नाचने-कूदने से उनके तन-मन-वचन तीनों ही मद के भावों में डूबने-उतराने लगे । बस, वहीं उन्होंने कुलमद के कारण नीच गोत्रकर्म का बन्ध कर लिया । ' १. देखें - आवश्यकसूत्र (मलयगिरि वृत्ति) में मरीचिकुमार का वृत्तान्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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