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________________ * २१४ * कर्मविज्ञान : भाग ९ * इसका भावार्थ यह है कि " जैसे कोई बुद्धिहीन मनुष्य हाथी को सुन्दर . वस्त्राभूषणों से सुसज्जित करके उसका उपयोग लकड़ी के बोझे दुलाने में करता है; सोने के बर्तन में धूल भरता है; किसी को अमृतरस मिल गया, उसे पीने के बदले वह मूढ़ उससे अपने पैर धोता है एवं कौए को उड़ाने के लिए बहुमूल्य महामणि फेंककर फिर रोता है, उसी प्रकार पापी या अज्ञानी जीव दुर्लभ मनुष्य शरीर पाकर आध्यात्मिक शक्तियों का विकास करने के बदले भौतिक सुख-सामग्री जुटाने तथा विषय-सुखों का आस्वादन करने में अपनी शक्तियाँ लगाकर मानव-जन्म को व्यर्थ खो देता है।" वह अपनी आत्मा के भीतर आध्यात्मिक शक्तियों का अखूट खजाना भरा पड़ा है, उसे जानता हुआ भी उस ओर नहीं झाँकता, उसे प्रगट करने का विचार नहीं करता । वह बाहर ही बाहर इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, चित्त आदि के द्वारा अपनी शक्तियों को पर भावों, पर-पदार्थों और विभावों में नष्ट करता रहता है । पर - पदार्थों और व्यक्तियों के प्रति रागादिभाव को पुष्ट करने के लिए वह अपनी तन- मन-वचन-प्राण की तमाम शक्तियों को झोंक देता है। वह अनेकों मोहजनित कार्यों में अपने दशबल प्राणों (पंचेन्द्रियबल प्राणों, मन-वचन-कायबल प्राण तथा श्वासोच्छ्वासबल प्राण और आयुष्यबल प्राण ) तक को लगा देता है। आत्म-शक्ति जाग्रत होने के क्षणों में कषायों आदि से उसकी रक्षा करना कठिन कभी-कभी बड़े-बड़े साधकों को मोहकर्मवश अपनी आत्म-शक्तियों का भान नहीं रहता। वे अपने अहंकार - ममकार के तथा क्रोधादि कषाय के तीव्र नशे में अपनी शक्तियों को बर्बाद कर देते हैं। उन्हें उस समय यह भान भी नहीं रहता कि अपनी आत्म-शक्तियाँ कहाँ लगानी चाहिए और कहाँ लगा रहे हैं ? कई बार आत्म-शक्तियाँ जब जागने लगती हैं, तब बहुधा अघटित घटनाएँ घटित होने लगती हैं, अप्रत्याशित रूप से उस मनुष्य के जीवन में परिवर्तन होने लगता है। यही दुर्घटना मरीचि के जीवन में घटित हुई । आत्म-शक्ति जाग्रत होने के प्रथम दौर में ही वे उस सम्यक् मार्ग को छोड़ बैठे। आत्म-भावों में शक्ति लगाने के बजाय वे पर-भावों में अपनी शक्ति का व्यय करने लगे। तीर्थंकर भगवान महावीर का जीव उस समय ऋषभदेव भगवान के पौत्र और भरत चक्रवर्ती के पुत्र ‘मरीचि' के रूप में त्रिदण्डी संन्यासी बना हुआ था। भगवान ऋषभदेव द्वारा प्ररूपित मुनिधर्म के प्रति उनकी श्रद्धा और निष्ठा थी, परन्तु उतना कठोर चारित्र- पालन करने की अक्षमता के कारण ही वह त्रिदण्डी साधु के वेश में भगवान ऋषभदेव के समवसरण - स्थल से बाहर विराजमान रहते थे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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