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________________ * परमात्मभाव का मूलाधार : अनन्त शक्ति की अभिव्यक्ति * २११ * कषाय, है—“भगवन् ! चारित्रमोहनीय कर्मशरीर का प्रयोगबन्ध किस प्रकार होता है ?" भगवान ने उत्तर दिया- " गौतम ! तीव्र क्रोध, तीव्र मान, तीव्र माया और तीव्र लोभ करने से तथा तीव्र दर्शनमोह से एवं तीव्र चारित्रमोह से होता है । " 'दशाश्रुतस्कन्ध' में महामोहनीय कर्मबन्ध के ३० कारण बताये हैं।' वह तो और भी भयंकर है। इस प्रकार मोहनीय कर्म श्रद्धा और चारित्र (आचरण) की शक्तियों को प्रकट नहीं होने देता। इसी प्रकार ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म साधक के ज्ञान और दर्शन की शक्तियों को कुण्ठित, विकृत एवं आवृत करते रहते हैं और चौथा घनघाती अन्तराय कर्म दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य नामक पाँच आत्मिक-शक्तियों के विकास में अन्तराय डालता है। आत्मा में जो अभयदान, सुपात्रदान (सुयोग्य व्यक्तियों को ज्ञानादि का दान ) एवं अनुकम्पादान की (आध्यात्मिक दृष्टि से दुर्बल, पीड़ित व्यक्तियों पर अनुकम्पा करके दुःख-निवारण का उपदेश, प्रेरणा एवं उपाय का दान की) मानव-शक्ति थी, उसमें हिंसा, ईर्ष्या, द्वेष, घृणा आदि से रुकावट आ रही है। आत्मा के अनन्त ज्ञान-दर्शन-चारित्र-सुखरूप स्वभाव की तथा आत्म- गुणों का लाभ प्राप्त करने की मानव में शक्ति थी, उसे पर-पदार्थों, इन्द्रियों और मन के विषयों तथा राग-द्वेष-कषायादि विभावों के वशवर्ती होकर मनुष्य नष्ट कर रहा है और लाभान्तराय कर्मबन्ध को प्रोत्साहन दे रहा है। इस प्रकार आत्मा के स्वभावोंस्वगुणों में तथा आत्म-सुख में रमणरूप भोग (एक बार सेवन ) तथा उपभोग ( बार-बार सेवन) करने की जो शक्ति मानवात्मा में थी, उसे वह प्रायः विषय-सुखों के उपभोग तथा विषय-सामग्री को आसक्तिपूर्वक जुटाकर तथा पर-पदार्थों में मोह-ममत्वपूर्वक सुख मानकर उनसे बार-बार उपभोग के फलस्वरूप भोगान्तराय और उपभोगान्तराय कर्म का बन्ध करके बर्बाद कर रहा है। जो व्यक्ति मोक्ष सुख-प्राप्ति में तथा आत्म-स्वभाव में रमण करने में अपनी शक्ति लगा रहे हैं, • पराक्रम कर रहे हैं, उनके मार्ग में ऐसे लोग रोड़ा अटकाकर इन दोनों कर्मों में १. (क) पंचहिं ठाणेहिं दुल्लभबोहियत्ताए कम्मं पकरेंति, तं जहा - ( १ ) अरहंताणं अवन्नं वदमाणे, (२) अरहंत-पन्नत्तस्स धम्मस्स अवन्नं वदमाणे, (३) आयरिय-उवज्झायाणं अवन्नं वदमाणे, (४) चाउवण्णस्स संघस्स अवन्नं वदमाणे, (५) विवक्क-तव- बंभचेराणं देवाणं अवन्नं वदमाणे । - स्थानांगसूत्र, स्था. ५, उ. २, सू. ४५६ - तत्त्वार्थसूत्र, अ. ६, सू. १४ - वही, अ. ६, सू. १५ (ख) केवलि - श्रुत-संघ - धर्म - देवावर्णवादो दर्शनमोहस्य। (ग) कषायोदयात् तीव्रात्मपरिणामश्चारित्रमोहस्य । (घ) मोहणिज्ज-कम्मासरीरप्पओगे पुच्छा । गोयमा ! तिव्व-कोहयाए, तिव्व-माणयाए, तिव्व-मायाए, तिव्व-लोभाए, तिव्व दंसणमोहणिज्जयाए, तिव्व-चारित्त- मोहणिज्जाए । - भगवतीसूत्र, श. ८, उ.. ९, सू. ३५१ (ङ) देखें - दशाश्रुतस्कन्ध में महामोहनीय कर्मबन्ध के तीस स्थान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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