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* २१० * कर्मविज्ञान : भाग ९ *
से जूझकर इनका क्षय, क्षमोपशम या उपशम करने को कोई तप, संयम में खास . पुरुषार्थ नहीं करते और न ही भावकर्मों के जनक राग, द्वेष, मोह, कषाय, नोकषाय आदि के आक्रमणों से आत्म-रक्षा-आत्म-स्वभावों की रक्षा करने का कोई पुरुषार्थ नहीं करते। अपनी असावधानी-अजागृति से शुद्ध आत्मारूपी गृह में घुसकर काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, मत्सर आदि भाववोर आत्म-शक्तिरूपी खजाने को लूट रहे-अपहरण कर रहे हैं, वे प्रमाद-निद्रा में गहरे सोए हुए हैं। उन्हें पता ही नहीं है कि उनकी आत्म-शक्तियों का स्रोत बाहर से भीतर की ओर आने के बदले भीतर से बाहर की ओर जा रहा है। अज्ञान, मिथ्यात्व, मोह, कषाय एवं प्रमाद आदि सब-के-सब कर्मबन्धकारक शत्रु मिलकर साधक की आत्मा में सुषुप्त, आवृत और अनभिव्यक्त आत्म-शक्तियों से उसे बेसुध, बेखबर और अज्ञात रखकर उन्हें अत्यधिक विकृत, आवृत, अनभिव्यक्त एवं चौपट कर देते हैं। इन्हीं राग-द्वेष-कषाय आदि विभावों के भुलावे में पड़कर अपनी आत्म-शक्तियों को भौतिक सुख-सुविधाओं के पाने में, इन्द्रिय-विषय-सुखों को चाहने और प्राप्त करने में खो रहे हैं तथा ईर्ष्या, द्वेष, पर-निन्दा, पैशुन्य, छलकपट, मद, मत्सर, मोह, आसक्ति, अहंत्व-ममत्व आदि मन के मनोज्ञ विषयों में बहककर उन्हें बर्बाद कर रहे हैं।
चार घातिकर्म किस प्रकार आत्म-शक्तियों को प्रकट नहीं होने देते?
चार घातिकर्मों में मोहनीय कर्म सबसे प्रबल है। उसके मुख्य दो भेद हैंदर्शनमोह और चारित्रमोह। दर्शनमोह तत्त्वभूत पदार्थों, आत्मा के स्वभाव एवं आत्म-शक्तियों के विकास में प्रेरक अर्हन्तदेव, निर्ग्रन्थ गुरु एवं सद्धर्म के प्रति श्रद्धा, दृष्टि एवं विश्वास को सम्यक नहीं होने देता। वह उसे चंचल, मलिन, अदृढ़ एवं विकृत कर देता है। सम्यग्दर्शन की शक्ति को प्रगट करने में बाधक दर्शनमोहनीय कर्मबन्ध मुख्य कारण है, जिसके कारण व्यक्ति को बोधि (सम्यक्त्व) की प्राप्ति नहीं हो पाती, अथवा वह दुर्लभबोधि हो जाता है और दर्शनमोहनीय कर्मबन्ध के ५ कारण इस प्रकार हैं-(१) केवलज्ञानी अर्हन्त का, (२) केवलि प्ररूपित धर्म (श्रुत-चारित्ररूप धर्म या रत्नत्रयरूप धर्म) का, (३) आचार्य और उपाध्याय का, (४) चातुर्वर्ण्य श्रमणसंघ का, (५) परिपक्व तप और ब्रह्मचर्य के धारण करने से जो जीव देव हुए हैं, उनका अवर्णवाद बोलना (निन्दा अथवा जो दोष उनमें नहीं हैं, वैसे दोष बताकर निन्दा करना) दर्शनमोहनीय कर्मबन्ध के ये पाँच कारण हैं। चारित्रमोहनीय कर्म सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय के आचरण की शक्ति प्रगट नहीं होने देता। कषाय के उदय से होने वाले आत्मा के तीव्र (उत्कट) कलुषितभाव चारित्रमोहनीय कर्मबन्ध के हेतु हैं। ‘भगवतीपूत्र' में पृच्छा की गई
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