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________________ * परमात्मभाव का मूलाधार : अनन्त शक्ति की अभिव्यक्ति * २०९ * दुर्ध्यानाचरण, प्रमादाचरण, हिंस्र वस्तुओं के प्रदान, पापकर्मोपदेश, कामोत्तेजक चेष्टाओं तथा कामवासनावर्द्धक अश्लील साहित्य, सिनेमा, टी. वी. आदि दृश्य - प्रेक्षण तथा कामोत्तेजक गायन आदि श्रवण, व्यर्थ बकवास, वाणी का व्यर्थ प्रलाप, उपभोग्य-परिभोग्य साधनों के अत्यधिक उपभोग आदि प्रवृत्तियों में शक्तियों का निरर्थक व्यय करते हैं। कई अधिकार, सत्ता, पद और प्रतिष्ठा के नशे में गर्वस्फीत होकर दूसरों को मारने-सताने, लूटने, शोषण करने, उत्पीड़न करने तथा अप्रतिष्ठित करने, हत्या, दंगा, डकैती, आगजनी, आतंक आदि करके अपनी अमूल्य शक्तियों को बर्बाद करते हैं। कई साधक कोटि के व्यक्ति भी दूसरों की या दूसरे सम्प्रदाय, प्रान्त, जाति, पार्टी, दल आदि की या उनके अनुगामी व्यक्तियों की निन्दा, बदनामी, चुगली करते हैं, उन्हें हैरान-परेशान करते हैं, इसी प्रकार दम्भ, दिखावा, प्रदर्शन, आडम्बर, ढोंग आदि मायापूर्वक कपटाचारण तथा हिंसादि पापों को एक या दूसरे प्रकार से मन-वचन-काया से कर-कराकर अपनी अमूल्य शक्तियों को नष्ट कर डालते हैं। आत्म-शक्तियों के विकास में बाधक कारणों से तथा परभावों और विभावों के आक्रमण से अपनी आत्मा और आत्म-शक्ति की सुरक्षा नहीं कर पाते । मोक्षपथ में आत्म-शक्तियाँ प्रकट करने के अवसरों को यों खो देते हैं यही कारण है कि ऐसे साधक रत्नत्रयरूप सद्धर्म-साधना - मोक्षमार्ग-साधना अथवा रत्नत्रय की आराधना में आने वाले विविध परीषहों तथा उपसर्गों से पराजित हो जाते हैं, उस दौरान समभाव में, शान्ति और धैर्य के साथ स्थिर रहकर अपनी आत्म-शक्तियों को प्रस्फुटित करने के बदले उस आग्नेय-पथ से पीछे हट जाते हैं। आत्म-धर्म तथा क्षमादि दशविध उत्तम धर्मों के आग्नेय - पथ पर चलते या उनका पालन करते समय परीक्षा के लिए आने वाले उपसर्गों (संकटों - कष्टों ) से घबराकर वे पीछे हटने लगते हैं । समभावपूर्वक उनका प्रतीकार करने में उनके पैर लड़खड़ाने लगते हैं। इन्द्रिय, मन, वाणी, अंगोपांग, बुद्धि, चित्त, हृदय एवं प्राणों पर संयम करने, उनकी चंचलता को रोकने के लिए उनके निरर्थक एवं अनावश्यक उपयोग या प्रयोग पर ब्रेक लगाने में तथा १७ प्रकार के संयम में, आनवों के निरोध में एवं बाह्याभ्यन्तर द्वादशविध तपश्चरण में अपनी आत्म-शक्तियों को लगाने तथा विकसित, जाग्रत एवं प्रगट करने में उनका अन्तःकरण किनाराकसी करने लगते हैं। Jain Education International तथाकथित आत्मार्थी साधक भी अपनी आत्म-शक्तियों के जागरण के प्रति असावधान तथाकथित साधक अपनी आत्म-शक्तियों पर आक्रमण करने तथा उन्हें क्षति पहुँचाने वाले ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय, इन घातिकर्मों For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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