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________________ * २०८ * कर्मविज्ञान : भाग ९ * जानते हुए भी जब तक उसे रगड़ा नहीं जाता है, तब तक उसमें से आग प्रकट नहीं होती। गाय आँगन में खड़ी है। उसे खूंटे से बाँध दिया, इतने मात्र से या उसे दूध देने की प्रार्थना करने से वह अपने आप दूध नहीं दे देती । वह दूध तभी देती है, जब उसे विधिपूर्वक दुहा जाता है । इसी प्रकार कोई व्यक्ति कितने ही शास्त्रों. और ग्रन्थों को पढ़ ले, प्रतिदिन मूल पाठ का केवल स्वाध्याय कर ले, उन शास्त्रों या ग्रन्थों से कदाचित् आत्म-शक्तियों को जान ले, किन्तु उनका उपयोग ही न करे, अथवा उनके उपयोग की विधि से अनभिज्ञ हो, तब तक वह अपनी आत्म-शक्तियों को जाग्रत, विकसित या अभिव्यक्त नहीं कर सकता । अतः आत्म-शक्तियों को जाग्रत करने की तमन्ना वाले साधक को आत्म-शक्तियों की जानकारी के साथ, उनके उपयोग की विधि से भी अभिज्ञ होना चाहिए। आत्म-शक्तियों का जागरण या क्रियान्वयन कैसे, किस माध्यम से, कब और किस देश, काल और परिस्थिति में किस प्रकार उपयोग करना चाहिए ? इसका भलीभाँति ज्ञान होना आवश्यक है। साथ ही यह भी जानना आवश्यक है कि आत्म-शक्तियों को जाग्रत और विकसित करने में कौन-कौन-से साधक और बाधक कारण हैं? कौन - कौन-से परीषह, उपसर्ग, खतरे और भय -स्थल हैं ? कौन - कौन-से संकट और विघ्न उपस्थित हो सकते हैं? उन संकटों, उपसर्गों, भयों, विघ्नों आदि का - - निवारण, प्रतीकार या सामना कैसे-कैसे अहिंसक ढंग से किया जाए? इतना सब जानने के साथ ही साहसपूर्वक सुषुप्त आत्म-शक्तियों को जाग्रत और अभिव्यक्त करने का पुरुषार्थ किया जाए तो उसे सफलता मिल सकती है । 'उत्तराध्ययनसूत्र' के द्वितीय परीषह अध्ययन में तथा १६ वें ब्रह्मचर्य-समाधि नामक अध्ययन में भी आत्म-शक्तियों को जाग्रत करने में साधक-बाधक कारण प्रस्तुत किये गए हैं। ' निष्कर्ष यह है कि जो व्यक्ति आत्म-शक्तियों के स्वरूप, उपयोग विधि, प्रयोग और इनके विकास एवं जागरण के मार्ग में आने वाले विघ्नों, संकटों एवं बाधक कारणों से जब तक यथार्थ और सर्वांगीण रूप से जानकारी नहीं हो जाएगी, तब तक आत्मा में निहित चतुर्थ गुणात्मक स्वभावरूप अनन्त आत्मिक शक्ति को जाग्रत एवं विकसित करने में सफलता से वंचित और भावदरिद्र ही समझे जाएँगे । आत्म-शक्तियों के दुरुपयोग, अपव्यय, असुरक्षा और अजागृति से वे प्रगट नहीं हो पातीं कई लोग आत्म-शक्तियों के पूर्वोक्त सर्वांगीण रूप से अनभिज्ञ होते हैं, वे अज्ञानवश अपनी आत्म-शक्तियों का दुरुपयोग, अथवा अपव्यय करते हैं, १. देखें- परीषह अध्ययन में २२ परीषहों को सहन करने से लाभ, उपाय तथा अनायास ही संवर और निर्जरा के प्राप्त अवसर द्वारा कर्मनिरोध और कर्मक्षय करने से आत्मिक शक्तियों का प्रकटीकरण, जागरण हो सकता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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