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________________ * २०४ * कर्मविज्ञान : भाग ९ * सुपरिणामों का प्रस्तुतीकरण है। इसमें प्रश्नोत्तर शैली में प्रस्तुत ७३ सूत्रों द्वारा मुमुक्षु साधकों को अपनी सुषुप्त अनन्त आत्म-शक्तियों को जाग्रत, अभिव्यक्त करके सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष प्राप्त करने अथवा परमात्मपद प्राप्त करने का स्पष्ट मार्गदर्शन दिया गया है।' आत्म-शक्ति किनकी अभिव्यक्त होती है, किनकी नहीं ? : भगवत्-प्ररेणा. _इन सब सूत्रों द्वारा भगवान महावीर का साधकों के लिए यही प्रेरणात्मक संदेश प्रतिफलित होता है-हे मानव ! तुम आत्मा हो। तुम्हारी आत्मा में सर्वोत्कृष्ट सारभूत शक्तियों की निधि भरी पड़ी है-अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त आनन्द और अनन्त वीरता की शक्तियाँ तुम्हारे पास हैं। परन्तु तुम अपने शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, चित्त आदि को ही सब कुछ समझ रहे हो। शरीरादि को जो शक्ति प्राप्त होती है, वह भी आत्मा के द्वारा ही होती है। यदि आत्मा न हो तो मृत शरीरादि कुछ भी नहीं कर सकते। इसी प्रकार धन, साधन, परिवार, परिजन, समाज, राष्ट्र आदि सजीव-निर्जीव पर-पदार्थों के द्वारा तुम अपने आप को शक्तिमान् मानते हो, परन्तु जन्म, जरा, मृत्यु और व्याधि, इन और ऐसे विविध दुःखों तथा चिन्ता, शोक, तनाव आदि मानसिक रोगों से क्या ये बचा सकते हैं या शरण दे सकते हैं, रक्षा कर सकते हैं ? फिर भी व्यक्ति भ्रमवश इन और आचारांगसूत्रोक्त शरीर (आत्म) बल, ज्ञातिबल, मित्रबल, प्रेत्यबल, देवबल, राजबल, चोरक्ल, अतिथिबल, कृपणबल और श्रमणबल का आश्रय लेकर अपनी शक्तियों का संवर्द्धन करने का उपक्रम करता है। इस प्रकार के विविध बलों का संग्रह करने से किसी व्यक्ति की आत्म-शक्ति बढ़ नहीं सकती, न ही जाग्रत हो सकती है। हे देवानुप्रिय ! तुम आत्मा की और आत्मा में निहित अनन्त शक्तिरूप निधि की उपेक्षा करके इन बाह्य निःसार और आत्म-बाह्य बलों का आश्रय लेकर आत्म-शक्ति की अभिव्यक्ति द्वारा सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष को पाने के लिए भटक रहे हो। मोक्ष के बदले केवल इन बाह्य बलों का आश्रय लेने से तो जन्म-मरणादिरूप संसार ही बढ़ेगा। इन बाह्य बलों में ज्ञानादि की वे चारों आत्म-शक्तियाँ कहाँ हैं ? १. देखें-उत्तराध्ययनसूत्र का 'सम्यक्त्व-पराक्रम' नाम का २९वाँ अध्ययन २. से आतबले, से णातबले, से मित्तबले, से पेच्चवले, से देवबले. से रायबले, से चोरवले, से अतिथिवले, से किवणवले, से समणवले; इच्चेते हिं विरूवरूवेहिं कज्जेहिं दंडसमादाणं सपेहाए भया कज्जति, पावमोक्खो त्ति मण्णमाणे अदुवा आसंसाए। -आचारांगसूत्र, श्रु. १, अ. ३, उ. २, सू. ७३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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