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________________ * परमात्मभाव का मूलाधार : अनन्त शक्ति की अभिव्यक्ति * २०५ * कौन आत्म-शक्ति से समृद्ध बनते हैं और कौन बनते हैं आत्म-शक्ति से हीन ? वस्तुतः जो अपनी इस असीम आत्म-शक्ति की निधि को जानने, पहचानने और विकसित करने का पुरुषार्थ-पराक्रम करता है, वह बाहर से भले ही अकिंचन, धनहीन, कृशकाय या पूर्वोक्त बाह्य बलों से रहित प्रतीत हो, किन्तु अन्तर से वह पूर्वोक्त अनन्त ज्ञानादि की शक्तियों से समृद्ध है, अथवा समृद्ध बनता जाता है। इसके विपरीत जो अनन्त ज्ञानादि शक्तियों से परिपूर्ण आत्म-निधि को नहीं जानता-पहचानता और अज्ञानवश पूर्वोक्त विविध बलों का तथा तन-मन-धन-साधन आदि बलों का संग्रह करके सुदृढ़ और प्रबल बनने का प्रयत्न करता है, वह बाह्य दृष्टि से, धनादि से समृद्ध मालूम होते हुए भी आत्मिक-शक्तिरूपी धन की दृष्टि से दुर्बल, दरिद्र, पराश्रित, परमुखापेक्षी और पिछड़ा है। ऐसे व्यक्ति प्रायः अपने ही अज्ञान और मिथ्यात्व के कारण, विपरीत दृष्टि और मिथ्या मान्यता के कारण आत्मिक दृष्टि से सर्वाधिक दरिद्र, दुर्बल और पराश्रित बनते हैं। इसी प्रकार जो व्यक्ति जान-बूझकर भी अपनी आत्म-शक्तियों की समृद्धि का सदुपयोग न करने वाले, अभ्यास और जिनोक्त पद्धति के द्वारा उन्हें जाग्रत न करने वाले, आत्म-विश्वासहीन हैं, वे आत्म-शक्ति होते हुए भी दीन, हीन, दरिद्र, दुर्बल एवं शक्तिहीन बनते हैं। आत्म-शक्तियों का सदुपयोग न करने वाले : चार प्रकार के व्यक्ति ... आत्म-शक्तियों के प्रतिनिधि मानव तीन प्रकार के होते हैं-(१) शक्तियों का उपयोग ही न करने वाले, (२) शक्तियों का दुरुपयोग करने वाले, और (३) शक्तियों का सदुपयोग करने वाले। इनमें से प्रथम के चार प्रकार के व्यक्ति आत्म-शक्ति की उपलब्धियों से वंचित रहते हैं। प्रथम प्रकार : शक्तियाँ शीघ्र ही समाप्त हो जाएँगी. इस भय से उनका उपयोग न करने वाले प्रथम प्रकार के व्यक्ति इस शंका से ग्रस्त रहते हैं कि आत्म-शक्तियों का उपयोग करने से वे शीघ्र ही खर्च हो जाएँगी। संकट, विपत और भय के समय जरूरत पड़ी तो क्या करेंगे? कहाँ से लायेंगे? कई व्यक्ति अपनी अदूरदर्शिता और विवेकमूढ़ता के कारण आत्म-शक्तियों का उपयोग ही नहीं करते। वे समझते हैं कि इस प्रकार धड़ल्ले से आत्म-शक्तियों का उपयोग करने लगेंगे तो शक्तियाँ शीघ्र ही समाप्त हो जायेंगी। परन्तु ऐसे लोगों का सोचने का तरीका गलत है। शक्ति के व्यय होने के डर से जो अपनी-अपनी आत्म-शक्तियों का उपयोग करना नहीं चाहते, वे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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