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________________ * २०२ * कर्मविज्ञान : भाग ९ * ___ --ज्ञानी (सम्यग्दृष्टि) आत्मा बाह्य पदार्थों को निःसार समझकर (उनको पाने में अपनी शक्ति न लगाए, क्योंकि उनमें बार-बार राग-द्वेष, प्रियता-अप्रियता का भाव आ जाने से कर्मबन्ध होता है) उनके फलस्वरूप जन्म-मरण का चक्र लगा रहता है, यह जानकर माहन (श्रमण एवं श्रमणोपासक) अनन्य (परमात्मभावआत्मा के शुद्ध स्वभाव) में विचरण करे। उनके कहने का तात्पर्य यह है कि बाह्य पदार्थों को पाने और उनमें अपनी आत्म-शक्तियों को नष्ट करने की अपेक्षा आत्मा के चतुर्गणात्मक अनन्त ज्ञानादि . शक्तियों की आराधना-साधना में शक्ति लगाओ, जिससे कि तुम्हारा मनुष्य-जन्म सार्थक हो। भगवान महावीर ने चार अंगों को दुर्लभ बताकर उनमें अपनी शक्ति लगाने की बात 'उत्तराध्ययनसूत्र' में बताई है-"इस संसार में प्राणियों को चार अंग मिलने और उनको उपार्जन करने में पराक्रम करना बहुत दुर्लभ है। वे हैंमनुष्यत्व, धर्मश्रवण, सम्यक्श्रद्धा और संयम में आत्म-शक्ति लगाना (पराक्रम करना)।"१ बौद्धिक आदि शक्तियों को जगाने में तत्पर विविध वैज्ञानिक आज बहुत-से वैज्ञानिक मानव में सुषुप्त बौद्धिक, मानसिक एवं भौतिक शक्तियों की शोध करने में लगे हुए हैं। मस्तिष्क शोध-संस्थान के एक परीक्षणकर्ता हुए हैं-'प्रो. ल्योनिद बासिलियेव।' उन्होंने अपने परीक्षण के आधार पर सिद्ध कर दिया है कि मानव-मस्तिष्क में शक्ति का अखूट और अनन्त स्रोत है। वह हजारों मील दूर बैठा हुआ अपनी इस शक्ति से दूसरों को सम्मोहित और आकर्षित कर सकता है, सन्देश और विचार सम्प्रेषित (निर्यात) कर सकता है। दूसरों से उनके विचारों का आयात भी कर सकता है। मानव-मस्तिष्क में विविध शक्ति. ों के अक्षय कोष का पूरा पता अभी मनोवैज्ञानिकों को नहीं लग सका है, फिर भी समाचार-पत्रों, मासिक-पत्रों में आए दिन अतीन्द्रिय ज्ञान-शक्तियों के विकास की तथा बौद्धिक शक्ति-स्मरण-शक्ति के चमत्कार की घटनाएं पढ़ने में आती हैं। उससे इतना तो मष्ट है कि मनुष्य प्रयत्न करे तो बौद्धिक, शारीरिक, मानसिक एवं अतीन्द्रिय ज्ञान की शक्ति का विकास कर सकता है। परन्तु उसके पीछे उन-उन कर्मों का क्षय, क्षयोपशम या उपशम का होना अनिवार्य है। फिर भी इतना निश्चित है कि ये शक्तियाँ चुम्बकीय तरंगें नहीं हैं, अपितु तैजस् शरीर से सम्पृक्त प्राण ऊर्जा-शक्ति से सम्बद्ध विद्युत् तरंगें हैं। १ चत्तारि एरमंगाणि दुल्लहाणीह जंतुनो। माणुसत्तं सुई सद्धा, मंजमम्मि य वीरियं॥ -उत्तराध्ययन, अ.३.गा.१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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