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* परमात्मभाव का मूलाधार : अनन्त शक्ति की अभिव्यक्ति * २०१ *
___ आत्म-शक्तियों से अपरिचित; जाग्रत करने में रुचि नहीं इन आध्यात्मिक शक्तियों का होना एक बात है और उनको जाग्रत करना, अभिव्यक्त करना या विकसित करना दूसरी बात है। अधिकांश मानव आत्मा की गुफा में विराजित उन अनन्त आत्मिक-शक्तियों से अपरिचित हैं। प्रायः वे अपनी आत्म-शक्तियों से अनजान हैं, न ही उनकी रुचि, जिज्ञासा एवं तत्परता उन सुषुप्त, अनभिव्यक्त आत्मिक-शक्तियों को प्रगट करने, जाग्रत करने और आत्मा के मौलिक गुणों को विकसित करने में है और न आत्म-शक्तियों के विषय में दृढ़ प्रतीति है। बहुत-से लोगों को यह पता भी नहीं होता कि उनके पास आध्यात्मिक शक्तियों का अखूट खजाना है। उन्हें इस कारण भी अपनी उन आध्यात्मिक शक्तियों का खजाना ज्ञात नहीं होता कि वे बाहर ही बाहर खोजते हैं। भौतिक धन, साधन और पर-पदार्थों को बटोरने में; भौतिक कार्यों में, शारीरिक बल बढ़ाने में, इन्द्रियों की शक्ति को विकसित करने में अपनी आत्मिक-शक्तियाँ खर्च करते रहते हैं। __ ऐसे लोग उस धनिक पुत्र की तरह हैं, जिसको अपने गुप्त धन का पता न होने से बाहर से निर्धन होने पर भीख माँगने लगा था। किन्तु उसके पिता के मित्र के द्वारा उसे गुप्त धन का ज्ञान करा देने पर वह पुनः धनाढ्य बन गया था। ऐसे ही अधिकांश लोग अपनी अनन्त आत्मिक-शक्ति के गुप्त भंडार से अज्ञात रहते हैं, इस कारण वे दूसरों से शक्ति की भीख माँगते फिरते हैं। वे प्रायः निःसार बाह्य पदार्थों को पाने-खोजने में
शक्ति लगाते हैं वे प्रायः अपने आत्मिक धन की ओर आँख उठाकर भी नहीं देखते, जो अन्तर के गुप्त भंडार में दबा पड़ा है। उनकी दृष्टि बाहर ही बाहर दौड़ती है। उन्हें वे ही भौतिक शक्तियाँ अभीष्ट, मनोज्ञ और सुखदायिनी लगती हैं, जो बाहर हैं। वे प्रायः अपने तन, मन, प्राण, इन्द्रियाँ, परिवार, समाज, धन, साधन, मकान आदि पर-पदार्थों को बढ़ाने, विकसित करने और उपार्जित करने में ही अपनी शक्ति लगाते रहते हैं। अपने भीतर झाँकने और मनोयोगपूर्वक उस आत्मिक-शक्तिरूपी निधि को खोजने का प्रयत्न नहीं करते। वे इसे निःसार, नीरस और निरर्थक समझते हैं जबकि सर्वोत्कृष्ट सारभूत वस्तु अन्तर में है। हमारे अध्यात्मयोगी वीतराग परमात्मा पुकार-पुकारकर कहते हैं
"णिस्सारं पासिअ णाणी, उववायं चवणं णच्चा अणण्णं चर माहणे।"
१. आचारांग, श्रु. १, अ. ३, उ. २
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