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* चतुर्गुणात्मक स्वभाव-स्थितिरूप परमात्मपद - प्राप्ति * १९९*
दशा का उत्तम आत्मिक आनन्द तो वह है ही; जोकि चौथे-पाँचवें गुणस्थान की भूमिका वालों के आनन्द से बहुत अधिक होता है । जैसे चने में स्वाद की उत्पत्ति, कच्चेपन का व्यय और उसके मूल स्वरूप की स्थिरतारूप ध्रुवत्व विद्यमान है, उसी प्रकार आत्मा में रागादिरहित शुद्ध अखण्ड आनन्द शक्तिरूप में विद्यमान है, ऐसी श्रद्धा के अपूर्व स्वाद का उत्पाद, अज्ञान एवं मिथ्यात्व का व्यय तथा सच्चिदानन्दस्वरूप आत्मा ध्रुवरूप है, ऐसी दृढ़ श्रद्धा प्रतीति हो तो आत्मा के अखण्ड आनन्दस्वरूप में स्थिरता आ सकती है।
आत्मा में निहित आनन्द का स्वाद तभी प्रगट होता है, जब वर्तमान अवस्था में चंचलता (भ्रान्ति), मलिनता और अगाढ़तारूपी कच्चापन (अपरिपक्वता ) तथा अशुद्धि निकाल दे और आत्मा के अखण्ड आनन्द स्वभाव पर दृढ़ श्रद्धा, प्रतीति एवं एकाग्रता हो। तभी आत्मा में निहित परिपूर्ण सुख - मोक्ष-सुख प्रकट होता है । ज्ञानी सन्त आत्मा के आनन्दादि स्वभाव को पहचानकर इस दुःखमय संसार - सागर को पार कर लेते हैं। जब संसार के कल्पित सुख से भिन्न जाति के निराकुल अतीन्द्रिय आत्मिक सुख का निरन्तर स्वाद आए, तभी आत्मानन्द की यथार्थ अनुभूति समझनी चाहिए । यही मोक्ष-सुख के निकट ले जाने वाली है । '
१. 'पानी में मीन पियासी' से भाव ग्रहण, पृ. ४२४-४५१
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