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________________ * १९८ * कर्मविज्ञान : भाग ९ * साधक भी अभ्यास मे उस परमानन्द स्वभाव की अनुभूति और उसमें स्थिरता प्राप्त कर सकता है। जिन्हें जागा के तानानन्द स्वभाव की परम शुद्ध दशा प्राप्त हो चुकी है, वे निरन्तर परमानन्द की मस्ती में इतने तन्मय हो जाते हैं कि उसमें से बाहर निकलते ही नहीं। जिस आत्यन्तिक और एकान्तिक मोक्ष-सुख में सिद्ध-परमात्मा निमग्न रहते हैं, उस सुख की कल्पना भी प्रचुर भौतिक वैभव और सुख-सम्पत्ति का धनी नहीं कर सकता। इसी प्रकार आत्मिक सुख-स्वभाव में सुख मानने वाला व्यक्ति बाह्य पदार्थों के स्वामित्व में सुख की कल्पना का परित्याग करके अपनी आत्मा में ही अनन्त अव्याबाध-सुख का अनुभव कर लेता है। 'भक्तपरिज्ञा' में भी कहा है-"जो सर्वग्रन्थों-बाह्याभ्यन्तर परिग्रहों से मुक्त है, शीतीभूत (शान्त) तथा प्रशान्तचित्त है, वह साधक जैसा मुक्ति-सुख पाता है, वैसा सुख चक्रवर्ती को भी नहीं मिलता।" सम्यग्दृष्टि प्रतिकूल संयोगों में भी आत्मानन्द में रहता है अतः सम्यग्दृष्टि आत्मार्थी प्रतिकूल संयोग, अनिष्ट परिस्थिति या व्यक्ति का : संयोग प्राप्त होने पर भी दृढ़ निश्चयपूर्वक विचारता है कि ये सब पर-वस्तुएँ मेरे लिए हानि-लाभ या दुःख-सुख की कारण नहीं हैं। मैं पर से भिन्न हूँ। पर के साथ मेरा कोई भी तादात्म्य सम्बन्ध नहीं है। इस प्रकार आत्मा के ज्ञानानन्द स्वभाव पर दृढ़ प्रतीति होने से वह चाहे जिस क्षेत्र में चला जाए, चाहे जिस काल या परिस्थिति में या संयोग में हो, उसे दुःख नहीं होता। नरक और तिर्यंच गति. का भी संयोग उसके लिए दुःखकारक नहीं होता, क्योंकि नरक में भी उसे यह दृढ़ प्रतीति होती है कि आत्मा किसी भी काल और किसी भी क्षेत्र में अपने मूल स्वभाव = अनन्त आनन्द-गुण से रहित नहीं होती। वह सदा अपने आनन्द स्वभाव में रहती है। भ्रमवश परनिमित्तों को अच्छा-बुरा कहने-मानने की जो बुद्धि है, वही दुःख है, दुःखबीजरूप बाह्य सुख है। वास्तव में सम्पत्ति नष्ट होने से, अपमान होने से या स्त्री-पुत्र अनुकूल न होने से जो प्रचुर आकुलता होती है, वह भी पर-पदार्थ के संयोग-वियोग से नहीं, अपितु अपने अज्ञान और मिथ्यात्व से होती है। यह आत्मा के अनाकुल सुख की विकृति है। इसके विपरीत सम्यग्दर्शन-ज्ञान और आत्मा के आनन्दमय स्वभाव में लीनता से आत्मा में प्रचुर अनाकुलता रूप सुख (आनन्द) की अनुभूति होती है। यों आ सकती है आत्मा के अनन्त अखण्ड आनन्द स्वभाव में स्थिरता ___ यद्यपि छठे-सातवें गुणस्थान की भूमिका में स्थित मुनि को भी केवलज्ञानी के समान पूर्ण आनन्द अभिव्यक्त नहीं होता, किन्तु लक्ष्य में तो वह पूर्ण है। मध्यम १. सव्वगंथ विमुक्को, सीइभूओ पसंतचित्तो य। जं पावइ मुत्ति सुहं, न चक्कवट्टी वि तं लहइ॥ -भक्तपरिज्ञा, गा. १३४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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