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________________ * १९४ * कर्मविज्ञान : भाग९ * का व्यक्ति उपभोग कर रहा है, उनके कल्पनाजन्य संस्कारवश भविष्य में जिन विषयों का उपभोग करना है, उनकी सुखद कल्पना से अज्ञानी जीव बाह्य विषयों, पर-पदार्थों या व्यक्तियों में सुख मानता है, वह पर-सापेक्ष हैं, आकुलतायुक्त है, उसकी प्राप्ति में, अर्जन में, रक्षण में तथा वियोग में दुःख है, इसलिए वह क्षणिक प्रतिभासित सुख आकुलता से पूर्ण एवं पराधीन है, जबकि आत्मिक-सुख (आनन्द) देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, विषय आदि से निरपेक्ष है, स्वाधीन है, निराबाध है, शाश्वत है, परिपूर्ण है। वह सुख कहीं बाहर से लाना नहीं है, वह तो आत्मा में ही पड़ा है। वही निजानन्द है। जिन्होंने स्वानुभूति की है, उन महान् आत्माओं-वीतराग परमात्माओं को उस सुख का साक्षात्कार या अनुभव होता है। तभी तो यह कहा जाता है-“एगंतसुही साहू वीयरागी।"7-वीतरागी साधु एकान्त सुखी है। वीतराग परमात्मा के ही नहीं, सामान्य आत्मा के भी आत्मा के प्रत्येक प्रदेश में अनन्त सुख पड़ा है। आत्मा के असंख्य प्रदेश में भी अनन्त सुख पड़ा है। समग्र आत्मा एकान्त सुख से सर्वथा परिपूर्ण है, इसलिए वह सुख का धाम है। आत्मिक-सुख से सम्पन्न वीतरागी पुरुषों की निष्ठा, .. वृत्ति-प्रवृत्ति और समता __ ऐसा आत्मिक-सुख ही अतीन्द्रिय, अव्याबाध, एकान्तिक और आत्यन्तिक है। वही परमात्मा का एवं सामान्य शुद्ध आत्मा का स्वभाव है। इस सुख (आनन्द) में किसी भी बाह्य निमित्त या आलम्बन की अपेक्षा नहीं रहती। वह आत्मा के स्वभाव में से प्रकट हुई आत्मा की शुद्ध परिणामधारारूप है। आत्मा से आत्मा में अनुभव किया जाने वाला वह सुख स्वाधीन है। यदि बाह्य विषयों या पर-पदार्थों में ही आनन्द या सुख होता तो साधुवर्ग इतने परीषह, उपसर्ग या कष्ट को समभाव से, शान्ति से क्यों सहन करता? गृहस्थवर्ग को भी समता, शान्ति, सन्तोष, अहिंसा आदि की साधना करने की आवश्यकता क्यों पड़ती? इसीलिए नमि राजर्षि ने विप्रवेशी इन्द्र को कहा था-"हम अकिंचन हैं, हमारा (अपनी आत्मा तथा आत्म-गुणों के सिवाय अन्य) कुछ भी नहीं है। इसलिए हम सुखपूर्वक (निराबाध स्वाधीन सुखपूर्वक) रहते हैं, निज-आनन्द में जीते हैं। मिथिला के जलने पर हमारा अपना कुछ भी नहीं जल रहा है। जिसने (अपने माने हुए) पुत्र, कलत्र आदि (पर-सम्बन्धों) का त्याग कर दिया, जो भिक्षु आरम्भ-परिग्रह आदि के व्यापार (प्रवृत्ति) से रहित है, उसके लिए संसार के कोई भी सीव-निर्जीव पर-पदार्थ न १. नवि सुही देवता देवलोए, नवि सुही सेट्टी-सेणावई वि। नवि सुही राया रट्ठवई, एगंत सुही साहू वीयरागी। -आउर पच्चक्खाण प्र. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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