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________________ * चतुर्गुणात्मक स्वभाव-स्थितिरूप परमात्मपद-प्राप्ति * १९३ * वेदनीय-मोहनीयादि अमुक कर्मों के आवरण के कारण नहीं हो पाती। जैसे-जैसे मानव बाह्य इन्द्रिय-विषयों, मनोविषयों एवं मनोज्ञ-अमनोज्ञ पर-पदार्थों में रागादिवश कल्पित सांसारिक सुख-दुःखों को छोड़कर एकमात्र आत्मिक आनन्द (सुख) में मग्न-तन्मय होता जाता है, त्यों-त्यों परमात्मा के अनन्त सुख-स्वभाव की ओर बढ़ता जाता है अर्थात् अपनी आत्मा में शक्तिरूप से निहित अनन्त आत्मिक सुख-स्वभाव, जो आवृत, कुण्ठित, सुषुप्त एवं अनभिव्यक्त है, उसे अभिव्यक्त कर लेता है। वैसे तो आत्मा स्वयं सुखधाम है, अनन्त अव्याबाध-सुख का स्वामी है, उसका यह निजी गुण भी है। उसी आनन्द की निधि उसके पास में है, जिस आनन्द की परिभाषा यह है “देश-काल-वस्तु-परिच्छेदशून्यः आत्मा आनन्दः।" ___ -जो देश, काल, वस्तु और व्यक्ति की प्रतिबद्धता से रहित हो, वह अव्याबाध आनन्द ही आत्मा है। अनन्त अव्याबाध-सुख की अभिव्यक्ति क्यों नहीं होती ? किन्तु सामान्य आत्मा देश, काल, वस्तु और व्यक्ति रूप पर-पदार्थों की प्रतिबद्धता से प्रतीत होने वाले क्षणिक काल्पनिक सुखाभास को आनन्द मान लेता है, किन्तु वह स्वाधीन नहीं है, बाधारहित नहीं है, पर-पदार्थाधीन है, इसलिए अमुक देश, काल, पात्रादि में वही भासित होने वाला सुख-दुःखरूप बन जाता है। अज्ञानीजन बाह्य विषयों, धन-मिष्टान्न-पुत्र-कलत्रादि अभीष्ट पर-पदार्थों की प्राप्ति में सुख मानते हैं, किन्तु वह सुख वस्तुनिष्ठ या व्यक्तिनिष्ठ होने से पराधीन, क्षणिक और आकुलताजन्य है। वह सुख नहीं, सुखाभास है। इस काल्पनिक सुख के साथ राग-द्वेष, हर्ष-शोक, प्रिय-अप्रिय, मनोज्ञ-अमनोज्ञ, अनुकूल-प्रतिकूल, रोष-तोष आदि आकुलता पैदा करने वाले विभावों (विकारों) के वेदन जुड़े हुए हैं। वेदनीय कर्म के उदय से मोहनीय कर्म से सम्पृक्त साता-असातारूप वेदन होता है, उक्त वेदन के समय उक्त सुख में आसक्ति (राग) और दुःख में अरुचि, घृणा (द्वेष) होने से पुनः वेदनीय और मोहनीय कर्म का बन्ध होता रहता है। इस काल्पनिक - सुख में दुःख का बीज छिपा हुआ है। बाह्य सुख पराधीन और आत्मिक-सुख स्वाधीन है ___ यह तो अनुभवसिद्ध तथ्य है कि बाह्य सुख पराधीन है, आत्मिक-सुख स्वाधीन है। जिन विषयों का उपभोग कर लिया, उनकी स्मृति से, जिन विषयों १. वेदान्तदर्शन २. पराधीन सपनेहु सुख नाही। -तुलसी दोहावली Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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