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* १९२ * कर्मविज्ञान : भाग ९ *
अतः स्वभाव-दर्शन का साधक अपने शुद्ध आत्म-दर्शनरूप स्वभाव पर अटल. रहता है, राग-द्वेषादि विभावों में लिप्त नहीं होता तो एक न एक दिन अवश्य ही परमात्मा के अनन्त दर्शनरूप स्वभाव को प्राप्त कर सकता है। तथैव रागादि विकारों से सर्वथा मुक्त अथवा अत्यन्त अल्पांश से युक्त होकर ज्ञानसमाधि की तरह दर्शनसमाधि भी प्राप्त कर सकता है। आत्म-दर्शनरूप स्वभाव की निष्ठा अनन्त (केवल) दर्शन तक पहुँचा सकती है
कई दफा व्यक्ति की दृष्टि, मति या वृत्ति आत्मा या आत्म-स्वभाव के दर्शन को छोड़कर दूसरों की ओर जाती है, तब वह अपने आप को उच्च और दूसरों को नीचा तथा स्वयं को उत्कृष्ट और दूसरों को निकृष्ट देखता, कहता, दिखाता या सुनाता जाता है। इतना ही नहीं, स्वयं को उच्च प्रतिष्ठापित करके दूसरों के प्रति घृणा, ईर्ष्या करता-कराता है। इसके अतिरिक्त जब व्यक्ति स्वयं रागादि से युक्त होकर, स्व-दर्शन को छोड़कर पर-दर्शन में उलझ जाता है, तब अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति, क्षेत्र, संयोग-वियोग, मान-अपमान, निन्दा-प्रशंसा आदि विषमताओं के प्रवाह में बहकर हर्ष-शोक, राग-द्वेष, रोष-तोष आदि करके मोहनीय कर्म से सम्पृक्त दर्शनावरणीय कर्म का अधिकाधिक बन्ध होता जाता है। फलतः उसकी स्वभाव-दर्शन की निष्ठा मन्द पड़ जाती है या बिलकुल ठप्प हो जाती है। उसे परमात्मा के स्वरूप-दर्शन में स्थिरता प्राप्त नहीं होती। न ही उस सम्यग्दृष्टि-विहीन आत्मा को परमात्मा के अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त आनन्द एवं असीम आत्म-शक्ति का, आत्म-स्वभाव के आस्वाद का तथा आत्म-सुख का दर्शन, विश्वास या श्रद्धान होता है। जिसकी परमात्मा के स्वभाव-दर्शन में निष्ठा जागती है, वह सबको समभावपूर्वक जानता-देखता है। ‘आचारांगसूत्र' के अनुसार उसकी दृष्टि में “आत्मैकत्वभाव के अनुरूप न तो कोई हीन लगता है, न ही अतिरिक्त (उत्कृष्ट) लगता है। परभावों को भी वह आत्म-दृष्टि से तोलता-नापता है, देखता है। आत्म-स्वभाव के दर्शन की वही निष्ठा उसे केवलदर्शन तक पहुँचा देती है।" परमात्मा का तृतीय आत्म-स्वभाव : अनन्त आनन्द (अव्याबाध-सुख)
सिद्ध या अर्हन्त परमात्मा का तृतीय आत्म-गुणात्मक स्वभाव है-अनन्त अव्यावाध-सुख (आनन्द); वही शुद्ध आत्मा का स्वभाव है। निश्चयष्टि से शुद्ध आत्मा में भी अनन्त अव्याबाध-सुख की शक्ति पड़ी हुई है, उसकी अभिव्यक्ति
१. णो हीणे, णो अइरित्ते, णो पीहए, तम्हा पंडिए णो हरिसे णो कुझे।
-आचारांग, श्रु. १, अ. २, उ. ३
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