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* चतुर्गुणात्मक स्वभाव-स्थितिरूप परमात्मपद-प्राप्ति * १९१ *
. आवृत और सुषुप्त केवलदर्शन को जाग्रत एवं
अनावृत करने के उपाय अतः आत्मा में निहित अनन्त दर्शन (केवलदर्शन) की शक्ति को जाग्रत, अनावृत और अभिव्यक्त करने हेतु उसे बहिर्मुखी बने बाह्य करणों (इन्द्रियों) तथा मन, बुद्धि, चित्त और हृदयरूप अन्तःकरणों को अन्तर्मुखी बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। शुद्ध आत्मा के या आत्मा के दर्शन-स्वभाव में स्थिरता के लिए उसे अपनी भूमिका के अनुरूप सजीव-निर्जीव पर-पदार्थों से तथा परभावों से वास्ता पड़ेगा, किन्तु उस समय वह ज्ञाता-द्रष्टा बनकर रहे, साक्षी बनकर रहे, कर्तृत्व-भोक्तृत्व बुद्धि न रखे, सहजभाव से जीए। 'उत्तराध्ययन' एवं 'आचारांग' के निर्देशानुसारपाँचों इन्द्रियों तथा मन के विषयों का आवश्यकतानुसार उपयोग करे, किन्तु उसके प्रति राग और द्वेष न रखे।
... सामान्य आत्मा को केवलदर्शन की शक्ति प्राप्त है,
पर अभिव्यक्ति क्यों नहीं और कैसे होगी? वैसे तो प्रत्येक आत्मा को केवलदर्शन की शक्ति प्राप्त है, वह ज्ञाता-द्रष्टा है, जानता और देखता भी है। परन्तु उसे वास्तव में देखना चाहिए आत्मा को, आत्म-स्वभाव को या आत्म-गुणों को; उसकी अपेक्षा चलाकर अनावश्यक रूप से देखता है-परभावों को अन्य व्यक्तियों या प्राणियों को, अथवा निर्जीव पर-पदार्थों को या रागादि विभावों (विकारों) को। परभावों के दर्शन (विकृतरूप से दर्शन) में उसकी पाँचों इन्द्रियाँ और मन लग जाते हैं, अवरुद्ध हो जाते हैं। फलतः स्वभाव के दर्शन की शक्ति परभाव-दर्शन में रुक जाती है। यद्यपि परमात्मा के केवल दर्शन-स्वभाव की अभिव्यक्ति सामान्य आत्मा में न होने में केवल दर्शनावरणीय कर्म ही कारण होना चाहिए, दर्शनमोहनीय कर्म कारण नहीं होना चाहिए। परन्तु जिस प्रकार बाह्य इन्द्रियों से मूर्तिक पदार्थों का दर्शन होता है, वैसे ही अतीन्द्रिय ज्ञानियों को अमूर्तिक आत्मा के भी दर्शन होते हैं। जैसे सर्वज्ञान-दर्शनों में आत्म-ज्ञान-आत्म-दर्शन अधिक उत्कृष्ट है, इस दृष्टि से बाह्य पदार्थों के दर्शन की अपेक्षा अन्तर्दर्शन = आत्म-दर्शन अधिक उत्कृष्ट है, पूज्य है। इस अपेक्षा से आत्म-दर्शन के बाधक कारणों में दर्शनावरणीय कर्म के साथ दर्शनमोहनीयचारित्रमोहनीय भी बाधक कारण माने जाएँ तो अनुचित नहीं है।
. .. १. (क) देखें-उत्तराध्ययन का ३२वाँ अप्रमाद अध्ययन
(ख) आचारांगसूत्र, श्रु. २. अ. ३. उ. १५, सू. १३१-१३५ २. देखें-तत्त्वार्थसार, पृ. २०१-२०२ का उद्धरण, तत्त्वार्थसूत्र (गुजराती टीका-रामजी ,
माणेकचन्द दोशी), पृ. ५२१-५२२
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