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________________ * १९० * कर्मविज्ञान : भाग ९ * लँगड़ा, अपाहिज होता है। दुर्बल मन का, मंद बुद्धि या मूर्ख, पागल, विक्षिप्त तक हो जाता है। इनके अतिरिक्त और भी कारण हो सकते हैं चक्षुदर्शनावरणीय और अचक्षुदर्शनावरणीय के। जैसे किसी की आँख, कान, नाक, जिह्वा, जननेन्द्रिय आदि को विकृत, भग्न एवं नष्ट कर देना, अथवा किसी दवा या मंत्रादि प्रयोग से किसी को विक्षिप्त, पागल, मूर्ख या मन्द बुद्धि बना देना भी अचक्षुदर्शनावरणीय कर्मबन्ध के कारण हैं, जिनके उदय में आने पर जीव को उसका प्रतिफल भोगना पड़ता है, साथ ही वह यक्षुदर्शन या अचक्षुदर्शन द्वारा होने वाले सामान्य बोध से भी वंचित हो जाता है। वह दर्शन-स्वभाव में प्रगति नहीं कर सकता। अवधिदर्शनावरणीय कर्मबन्ध के हेतु और फल अवधिदर्शनावरणीय कर्मबन्ध तब होता है, जब व्यक्ति आत्म-दर्शन के बदले अथवा आत्म-गुणों के सामान्य बोधरूप दर्शन के बदले आत्म-बाह्य पदार्थों के देखने-सुनने और उनको जानने-देखने में रुचि, लालसा रखता है। उसे अवधिदर्शन की शक्ति से देखना चाहिए आत्मा को, आत्म-गुणों को, आत्मा के स्वभाव को; पर अधिकांश समय लगाता है सजीव-निर्जीव पर-पदार्थों को जानने-देखने, उनमें राग-द्वेष, आसक्ति-घृणा, मोह-द्रोह, प्रियता-अप्रियता आदि भाव लाता है अथवा अधिकांश समय रागादि विभावों में अपनी आत्मा की सामान्य बोध (दर्शन) की शक्ति को लगाता है। समग्र जीवन का प्रायः पाँच प्रतिशत या उससे भी कम समय स्व-दर्शन-शुद्ध आत्म-दर्शन (परमात्म-दर्शन) में व्यतीत होता है। फलतः सजीव-निर्जीव परभाव-दर्शन से प्रायः ईर्ष्या, द्वेष, अहंत्व-ममत्व, मोह, मद, मत्सर, छलकपट, लोभ आदि समस्याएँ पैदा होती हैं। उनसे अवधिदर्शनावरणीय कर्म का बन्ध होता है, अवधिदर्शन (द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव मर्यादायुक्त सामान्य बोध) प्राप्त नहीं होता। अवधिदर्शन और केवलदर्शन के आवरण में मोहकर्म का हाथ ____ अवधिदर्शन और केवलदर्शन में पाँचों इन्द्रियों या मन से सामान्य-विशेष बोध न होकर सीधा (Direct) आत्मा से ही बोध होता है। परन्तु आत्मा से सीधा बोध प्रायः धर्मध्यान, शुक्लध्यान से, कायोत्सर्ग से, प्रतिसंलीनता से, संवर और निर्जरा से तथा भेदविज्ञान से हो पाता है, इनका प्रयोग न करके व्यक्ति जब आत-रौद्रध्यान में पड़ता है, शरीर और शरीर से सम्बद्ध वस्तुओं के प्रति ममत्व-अहंत्व, राग-द्वेष आदि करने लगता है, सजीव-निर्जीव परभावों और विभावों को जानने-देखने और उन्हीं में तल्लीन होकर आत्मा और आत्मा के निजी गुणों या आत्म-स्वभाव के प्रति उपेक्षा करता है, उदासीन हो जाता है, तब अवधिदर्शन या अनन्त (केवल) दर्शन की जो शक्ति उसकी आत्मा में निहित थी, उसकी अभिव्यक्ति नहीं हो पाती। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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