SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 339
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * चतुर्गुणात्मक स्वभाव - स्थितिरूप परमात्मपद - प्राप्ति * १८५ सम्यग्ज्ञान और संवेदन का पृथक्करण करने वाला साधक ज्ञानसमाधि प्राप्त कर लेता है जिस ज्ञान -स्वभाव में रहने वाले आत्मार्थी साधक को ऐसी भूमिका प्राप्त हो जाती है, जिसमें सम्यग्ज्ञान और संवेदन के पृथक्करण का विवेक जग जाता है और जो संवेदन से प्रतिक्षण दूर रहकर एकमात्र ज्ञाता- द्रष्टा बनकर रह सकता हो, वह स्वयं के ज्ञान (वस्तु के ज्ञान ) को कोरा ज्ञान रखता है, उसमें रागादि विभावों की मिलावट नहीं करता, वह साधक वास्तव में ज्ञानसमाधि ( श्रुतसमाधि) प्राप्त कर लेता है। चतुश्चरणात्मक ज्ञानसमाधि से ज्ञान-स्वभाव में पूर्ण स्थिरता 'दशवैकालिकसूत्र' में इसी ज्ञानसमाधि को श्रुतसमाधि कहा गया है। इसके प्रयोजनात्मक चार चरण बताये गए हैं - ( १ ) विशुद्ध ज्ञान ( श्रुतज्ञान) होना, (२) एकाग्रचित्त होना, (३) स्वयं सत्य ( ज्ञानभाव ) में प्रतिष्ठित (स्थिर) होना, और (४) दूसरों को ज्ञानभाव में स्थिर करना । वस्तुतः ज्ञान अपने आप में चंचल नहीं होता, रागादि संवेदन ही चंचलता पैदा करते हैं, अतः ज्ञानसमाधि का प्रथम परिणाम या प्रयोजन है- विशुद्ध ज्ञान में स्थित होना - चंचलता समाप्त होना; दूसरा है - एकाग्रचित्त होना, ज्ञान में दत्तचित्त होना; तीसरा है - ज्ञान - स्वभाव में स्थित हो जाना और चौथा परिणाम या प्रयोजन है - दूसरों को ज्ञान - स्वभाव में स्थित करना । : यही ज्ञानसमाधि है। 'गीता' में इसी को 'ज्ञानयोग- व्यवस्थिति' कहा गया है। आशय यह है कि जब साधक का उपयोग सतत आत्मा के ज्ञान - स्वभाव में स्थिर रहता है, उसमें जब किसी भी प्रकार के परभावों, विभावों अथवा कर्मोपाधिजन्य परिस्थितियों को ममत्ववश अपने मानकर अपनाने की कामना, स्पृहा, वासना या लालसा जरा भी नहीं रहती और जब वह आत्म- तृप्त, आत्म-सन्तुष्ट या आत्म-रति बन जाता है, तब वही आगमों की भाषा में स्थितात्मा, गीता की भाषा में स्थितप्रज्ञ हो जाता है। यही आत्मा के ज्ञान - स्वभाव में सतत स्थिर रहने की कुंजी है। ' परमात्मभाव का द्वितीय गुणात्मक स्वभाव - अनन्त दर्शन : क्या और कैसे ? परमात्मा का अनन्त दर्शन - स्वभाव भी मूल रूप से सामान्य आत्मा में शक्तिरूप से विद्यमान है। किन्तु उसकी अभिव्यक्ति होने में कई बाधक कारण १. (क) पानी में मीन पियासी से भाव ग्रहण, पृ. ४३८-४४० (ख) चउब्विहा खलु सुयसमाही भवइ, तं जहा - ( १ ) सुयं मे भविस्सइ त्ति अज्झाइयव्वं भवइ, (२) एगग्गचित्तो भविस्सामि त्ति अज्झाइयव्वं भवइ, (३) अप्पाणं ठावइम्सामि त्ति अज्झाइयव्वं भवइ, (४) ठिओ, परं ठावइस्सामि त्ति अज्झाइयव्वं भवइ ।. - दशवैकालिंकसूत्र, अ. ९, उ. ४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy