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________________ * १८४ * कर्मविज्ञान : भाग ९ * इसी प्रकार वह जानकारी भी अज्ञान है, जो आत्मा को स्वभाव से दूर ले जाती हो, . फिर भले ही वह जानकारी स्वमान्य आगमों की हो या परमान्य शास्त्रों की हो। यदि दृष्टि सम्यक् नहीं है, अनेकान्तवादी सापेक्ष दृष्टि नहीं है तो स्वमान्य शास्त्र भी उसके लिए मिथ्याज्ञान रूप हो सकते हैं और यदि दृष्टि सम्यक् है, अनेकान्तवादयुक्त सापेक्ष है, तो परमान्य शास्त्र भी उसके लिए सम्यग्ज्ञानरूप हो सकते हैं। भगवद्गीता' में ज्ञान और अज्ञान का विश्लेषण करके कहा गया है“अध्यात्मज्ञान (आत्मा-अनात्मा के विवेकज्ञान) में नित्य स्थिरता तथा तत्त्वज्ञान के अर्थ (उद्देश्य) रूप परमात्मभाव को सदा देखना, यही वास्तविक ज्ञान है। इससे जो विपरीत है, उसे अज्ञान (मिथ्याज्ञान) कहा गया है।" ____ 'ज्ञानसार' में कहा गया है-"जो ज्ञान आत्मा के या परमात्मा के ज्ञानादि स्वभाव की ओर ले जाता हो, अथवा स्वभावदशा के अधिकाधिक निकट रहने में सहायक हो, अथवा जो जानकारी स्वभावदशा में स्थिर रखने में लाभदायक = उपयोगी हो, कम से कम जो स्वभाव-सम्मुखता अथवा स्वभाव के संस्कार के जगाने में मुख्य कारण हो, उसे ही महान् आत्माओं ने ज्ञान (यथार्थ आत्म-ज्ञान) कहा है। इससे भिन्न जो रागादि विभाव बढ़ाने में, पर-पदार्थों के प्रति राग-द्वेषादि करने में, परमात्मभाव से विमुख करने में सहायक हो, वह बुद्धि की अन्धता-मूढ़ता है।" शास्त्राध्ययन या शास्त्र-स्वाध्याय का मुख्य उद्देश्य __ आध्यात्मिक साधना की दृष्टि से शास्त्राध्ययन या शास्त्र-स्वाध्याय का उद्देश्य केवल तत्त्वों की जानकारी कर लेना या शास्त्रोक्त पाठ का उच्चारण-श्रवण-वाचन कर लेना ही नहीं है, किन्तु स्वयं को ज्ञानादि गुणात्मक आत्म-स्वभाव की ओर ले जाना तथा आत्म-स्वभाव के प्रति श्रद्धा और रुचि को दृढ़ करना और परभावों-विभावों से विरक्ति में वृद्धि करना होना चाहिए। आत्म-ज्ञान : कैसा हो, कैसा नहीं ? ऐसा आत्म-ज्ञान (आत्म-स्वभाव-ज्ञान) प्रारम्भ में साधक को सत्श्रुत निर्ग्रन्थनिःस्पृह आत्म-ज्ञानी साधुओं के समागम से, स्वाध्याय और श्रवण से प्राप्त करना चाहिए, बशर्ते कि वह ज्ञान राग-द्वेषादि विभाव को जगाने वाला, पर-निन्दाआत्म-प्रशंसा या मद-मत्सर आदि पापों को बढ़ाने वाला न हो। वह स्वभावदशा के अधिकाधिक निकट ले जाने वाला हो, आत्मा को गुणात्मक स्वभाव में स्थिर करने वाला हो। -भगवद्गीता १३/११ १. अध्यात्म-ज्ञान-नित्यत्वं, तत्त्व-ज्ञानार्थ-दर्शनम्। एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा । २. स्वभाव-लाभ-संस्कार-कारणं ज्ञानमिष्यते। श्यान्ध्य-मानमतस्त्वन्यत, तथाचोक्तं महात्मना॥ -ज्ञानसार, ज्ञानाष्टक ५, श्लो. ३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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