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________________ * १७८ * कर्मविज्ञान : भाग ९ * ज्ञान-स्वभाव में स्थिर साधक की अर्हता के आधारसूत्र ___ ज्ञान-स्वभाव में स्थिर व्यक्ति के मन में ज्ञान का अंहकार-ममकार, ज्ञान की मन्दता के कारण हीनभावना, ज्ञान या ज्ञानी जनों की आशातना, अविनय, अबहुमान या अवहेलना नहीं होती, उनके प्रति ईर्ष्या, निन्दा या घृणा का भाव नहीं आता। इसी प्रकार सम्यग्ज्ञान या ज्ञानीजनों के प्रति दोषदृष्टि, द्वेष-बुद्धि तथा उन्हें नीचा दिखाने की, बदनाम करने की, अप्रतिष्ठित करने की एवं जिज्ञासु एवं योग्य पात्र की ज्ञान-प्राप्ति में अन्तराय डालने-विघ्न-बाधा उपस्थित करने की दुर्वृत्ति नहीं होती। वह सत्य या सम्यग्ज्ञान को आवृत करने के कारणों से सदैव दूर रहता है, सत्य का द्रोह, अपलाप या निह्नव नहीं करता; सभी धर्मों और दर्शनों में निहित सत्यों का अनेकान्तवाद की सापेक्ष दृष्टि से ग्रहण एवं प्रतिपादन करता है। निष्कर्ष यह है कि ज्ञान-स्वभाव में स्थिर होने के लिए वह ज्ञान-प्राप्ति में बाधक प्रत्येक कारण से बचता है और साधक कारणों को अपनाता है तथा प्रत्येक अवश्य ज्ञातव्य वस्तु को जानता-देखता है, परन्तु उनके प्रति राग-द्वेष, प्रियता-अप्रियता का या मनोज्ञ-अमनोज्ञ का या अनुकूल-प्रतिकूल भावों का संवेदन नहीं करता, जिस ज्ञान से शान्ति और समता हो, जो ज्ञान, राग-द्वेषादि विकारों तथा अज्ञान-मिथ्यात्व के अन्धकारों को दूर करने में सहायक हो, उसी सम्यग्ज्ञान को अपनाता है। जिस ज्ञान से राग-द्वेष, काम, क्रोध, मद, मत्सर, लोभादि कषाय बढ़ते हों, काम-वासना, लालसा, तृष्णा आदि दुर्वृत्तियाँ पैदा होती हों, उस ज्ञान को वह नहीं अपनाता। ये और ऐसे ही कतिपय कारण ज्ञान-स्वभाव में स्थिरता के मूलाधार हैं। भरत चक्रवर्ती को ज्ञान-स्वभाव में स्थिरता से केवलज्ञान-प्राप्ति भरत चक्रवर्ती अपने ज्ञान-स्वभाव में स्थिर रहते थे। जब उनके ९८ सहोदर भाइयों ने भगवान ऋषभदेव के पास दीक्षा ग्रहण कर ली, उधर बाहुबली भी आत्म-बली बनकर आत्म-ध्यानस्थ एवं आत्म-स्वभाव में स्थिर हो चुके, तब भरत चक्रवर्ती के मन में मन्थन जागा कि यह सारा राज्यवैभव, ठाट-बाट, भोग्य-सामग्री आदि समस्त पदार्थ अनित्य हैं, कर्मोपाधिक हैं, विनश्वर हैं, परभाव हैं, मेरे नहीं हैं, न मैं इनका हूँ, ये पुण्योदय से प्राप्त पदार्थ अवश्य ही त्याज्य हैं, इन्हें एक दिन छोड़ना ही पड़ेगा, अतः किसी भी सजीव-निर्जीव पर-पदार्थ के प्रति रागादि भाव लाना विभाव है, आत्मा के ज्ञानादि स्वभाव से विरुद्ध है। आत्मा ही एकमात्र शाश्वत, अविनाशी है। चतुर्गुणात्मक आत्म-स्वभाव ही एकमात्र उपादेय है। मुझे उसी में लीन, मग्न या स्थिर रहना चाहिए। ये शरीरादि पदार्थ, वैभव, राज्य, रानी आदि परिवार भोग्य-सामग्री आदि सजीव-निर्जीव पदार्थ भले ही मेरे समक्ष रहें या Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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