SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 331
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * चतुर्गुणात्मक स्वभाव-स्थितिरूप परमात्मपद-प्राप्ति * १७७ * दर्पण के सामने अग्नि प्रज्वलित हो रही हो, तो वह भी वैसी ही झलक जाती है, परन्तु अग्नि का असर दर्पण पर नहीं पड़ता। इसी प्रकार केवलज्ञान या शुद्ध ज्ञान में जगत् के सभी द्रव्य और पर्याय झलकते हैं, परन्तु केवलज्ञानी आत्मा या ज्ञाता-द्रष्टा आत्मा पर उनका कोई असर नहीं होता। न ही उक्त आत्माओं को उन पदार्थों को जानने-देखने या झलंकाने की स्पृहा या इच्छा होती है। केवलज्ञानी परमात्मा तो एकमात्र निज आत्म-स्वभाव में आत्मा के ज्ञान के प्रकाश में लीन है, उसी में स्थिर रहते हैं, इसी प्रकार जो ज्ञान-स्वभाव में स्थिर होना चाहता है, उस ज्ञाता-द्रष्टा साधक को भी निज आत्म-ज्ञान के प्रकाश में लीन और स्थिर होना चाहिए। साधारण आत्मा ज्ञान-स्वभाव से डिगती क्यों है ? ज्ञान-स्वभाव से साधारण आत्मा तभी स्खलित होती या डिग जाती है, जब किसी सजीव या निर्जीव पर-पदार्थ या परिस्थिति के आने पर वह दर्पण की तरह तटस्थ ज्ञाता-द्रष्टा या साक्षी न रहकर मन में रागादिभाव या प्रिय-अप्रिय आदि द्वन्द्व का संवेदन करने लगती है। वस्तु सामने आते ही ज्ञपरिज्ञा से उसे जाने-देखे भले ही, परन्तु उसके सम्बन्ध में राग-द्वेषादि या कषाय-नोकषाय आदि का विकल्प न उठाए, तभी व्यक्ति ज्ञान-स्वभाव में स्थित रह सकता है। ज्ञान-स्वभाव में स्थिर रहना ही परमात्मभाव में, मोक्षपद में स्थिर रहना है। ____ ज्ञान-स्वभाव में स्थिर स्थितात्मा या स्थितप्रज्ञ की पहचान ज्ञान-स्वभाव में स्थिर रहने वाले साधक के लक्षण ‘आचारांगसूत्र' में स्थितात्मा के नाम से तथा 'भगवद्गीता' में स्थितप्रज्ञ के नाम से दिये गए हैं। वस्तुतः जिस मुमुक्षु साधक के अन्तर में यथार्थरूप से, आत्म-ज्ञान या परमात्मा के अनन्त ज्ञानरूप स्वभाव का ज्ञान सुदृढ़ हो गया है, ऐसा स्थितात्मा या स्थितप्रज्ञ साधक इष्ट-वियोग अथवा अनिष्ट-संयोग में समभाव से विचलित नहीं होता; अपने ज्ञान-स्वभाव से एक इंच भी नहीं भटकता। कदाचित् अपनी भूमिका के अनुसार रागादि या कषायादि पर पूर्ण विजय प्राप्त न होने के कारण उसका सजीव-निर्जीव परभावों के साथ सम्पर्क होता है, फिर भी वह उनके प्रति उदासीनभाव, वैराग्यभाव एवं निःस्पृहता रखता है। सांसारिक पदार्थों के प्रति लोभवृत्ति, तृष्णा, आसक्ति, लालसा या मोहादि वासना उसके हृदय में जाग्रत नहीं होती। प्रतिकूल परिस्थिति में भी वह किसी भी निमित्त को दोष नहीं देता, अपने उपादान को टटोलता है और ज्ञानबल से समभाव में स्थिर हो जाता है।' १. (क) देखें-आचारांग, श्रु. १, अ. ७. उ. ५ में स्थितात्मा के लक्षण-“एवं से उट्ठिए ठियप्पा. अणिहे अचले चले अबहिलेस्से परिव्वए। से वैता कोहं च माणं च मायं च लोभं च। एस तिउट्टे वियाहिए त्ति बेमि।" र (ख) देखें-भगवद्गीता, अ. २, श्लो. ५५-५८, ६१ में स्थितप्रज्ञ का लक्षण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy