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________________ * १७६ * कर्मविज्ञान : भाग ९ * आत्मा के ज्ञान-स्वभाव में विकृति या मलिनता क्यों आ जाती है ? प्रश्न होता है कि आत्मा के ज्ञान - स्वभाव में जब इतना गुण, आनन्द, श्रद्धाबल और शक्ति है तो साधारण मनुष्यों की ही नहीं, विशिष्ट आध्यात्मिक साधकों की भी आत्मा शुद्ध ज्ञान (स्वभाव) से क्यों विचलित, अस्थिर, मलिन, स्खलित और अदृढ़ हो जाती है? वह अपने शुद्ध ज्ञान - स्वभाव में क्यों नहीं स्थिर रहती ? उसके शुद्ध ज्ञान में क्यों विकृति या मलिनता आ जाती है ? आत्मा का शुद्ध स्वभाव : कैसा होता है, कैसा नहीं ? ज्ञान जब तक मात्र ज्ञान ही रहे, उसके साथ प्रियता- अप्रियता, राग-द्वेष, अच्छे-बुरे, अनुकूल-प्रतिकूल, मनोज्ञ-अमनोज्ञ का मिश्रण न करे, तब तक वह वस्तुस्वरूप का यथार्थ ज्ञान है । जैसे दर्पण स्वच्छ होता है तो उसके सामने जो भी सजीव-निर्जीव पर-पदार्थ, जिस रूप में उपस्थित रहता है, उस रूप की वैसी ही स्पष्ट झलक दिखाई देती है परन्तु दर्पण पर उस वस्तु का कोई प्रभाव नहीं पड़ता, नही दर्पण उस वस्तु के विषय में कोई अच्छे-बुरे या राग-द्वेष का विकल्प करता है। उसी प्रकार ज्ञान भी दर्पण की तरह स्व-पर- प्रकाशक है, जो वस्तु जैसी है, वैसी ही ज्ञान में झलक जाती है ? ज्ञेय वस्तु को जानना ज्ञान का स्वभाव है । वस्तु के जानते समय ज्ञान ज्ञेय को सिर्फ जानने रूप में परिणत होता है । वह सतत ज्ञायक रूप में ही रहता है। ज्ञान ज्ञान में रहकर ही अनेक ज्ञेयों का ज्ञान करता है । परन्तु दर्पण में प्रतिबिम्बित होने वाले पदार्थ के रूप में दर्पण नहीं बन जाता, तथैव में ज्ञेय के ज्ञात होने पर वह ज्ञान परज्ञेय पदार्थ रूप नहीं बन जाता । अर्थात् परज्ञेयों को जानने पर वे (ज्ञेय) (ज्ञान) स्वभाव में नहीं आते। आशय यह है कि ज्ञान द्वारा जब ज्ञेय जाना जाता है, तब वह ज्ञान भिन्न स्वरूप से अखण्ड ही रहता है, तथैव उक्त ज्ञेय पदार्थ भी अपने आप में भिन्न स्वरूप से अखण्ड रहता है। जैसे ज्ञेय पदार्थ खट्टा हो तो ज्ञान उसे खट्टा जानता है, परन्तु ज्ञान स्वयं खट्टा नहीं हो जाता । पच्चीस हाथ लम्बा वृक्ष ज्ञान में आने से ज्ञान उतना लम्बा नहीं हो जाता। इसी तरह ज्ञान पुण्य, पाप, कषाय या राग आदि को जानता अवश्य है, किन्तु वह तद्रूप नहीं हो जाता। तात्पर्य यह है कि दर्पण के समान ज्ञान में भी ज्ञेयकृत अशुद्धता, विकृति या मलिनता नहीं आती। जैसा निमित्त उपस्थित होता है या जैसा ज्ञेय होता है, ज्ञान उसे ठीक वैसे ही जानता है। ज्ञान शुद्ध ज्ञानी या केवलज्ञानी दर्पणवत् तटस्थ ज्ञाता- द्रष्टा रहता है शुद्ध ज्ञान या केवलज्ञान दर्पण के समान है। दर्पण को किसी पदार्थ को देखने-जानने या झलकाने की इच्छा नहीं होती, उसके समक्ष जो भी पदार्थ आते हैं, वे उसी रूप में प्रतिबिम्बित हो जाते हैं। उन पदार्थों का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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