________________
* चतुर्गुणात्मक स्वभाव-स्थितिरूप परमात्मपद-प्राप्ति * १७९ *
मैं इनके बीच रहूँ, परन्तु निश्चय में ये मेरे नहीं और न मैं इनका हूँ। राज्यादि वैभव का उपभोग करते हुए तथा पुत्र, कलत्र आदि परिवार के प्रति कर्तव्य-सम्बन्ध रखते हुए एवं प्रजा आदि के प्रति दायित्व-सम्बन्ध निभाते हुए भी मुझे इनसे निर्लिप्त तथा इनके प्रति साक्षी, ज्ञाता-द्रष्टामात्र रहना चाहिए। इनके प्रति आसक्ति, माया, राग, द्वेष, मोह, घृणा, अहंकार, क्रोध, मद, मत्सर, लोभादि कषायभाव नहीं लाना चाहिए।
इस प्रकार भरत चक्रवर्ती राज्यवैभव, चक्रवर्ती की ऋद्धि-सम्पदा तथा अन्य सुख-साधनों आदि परभावों के बीच रहते हुए भी रागादि विभावों से बचकर स्वभाव में स्थिर रहने का प्रयत्न करने लगे। एक दिन शीशमहल में आत्मा और आत्म-गुणात्मक स्वभाव तथा शरीर, आभूषण, सौन्दर्य आदि परभावों का अनुप्रेक्षण करते-करते भेदविज्ञान परिपक्व हो गया। उनकी आत्मा ज्ञानादि-स्वभाव में स्थिर और निश्चल हो गई, तब मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन चार घनघातिकर्मों का क्षय होते ही केवलज्ञान-केवलदर्शन प्रकट हो गया। जो अनन्त ज्ञान-अनन्त दर्शन अभी तक आवृत, सुषुप्त और शक्ति के रूप में आत्मा में निहित था, वह आज अनावृत, जाग्रत और अभिव्यक्त हो गया।
ज्ञान किसी परभाव या विभाव के अवलम्बन से
प्रकट नहीं होता, वह स्वतः प्रगट होता है कोई कह सकता है कि भरत चक्रवर्ती में अर्हन्त परमात्मा या सिद्ध-परमात्मा के समान अनन्त ज्ञान = केवलज्ञान अभिव्यक्त हो गया, वह किसी सजीव-निर्जीव पर-पदार्थ (अँगूठी आदि) के या पुण्य-पाप (शुभ-अशुभ कर्मों) के आधार से या किसी भी परभाव या विभाव के अवलम्बन से (जैसे-बाहुबली को अपने मानकषाय के निमित्त से या ब्राह्मी सुन्दरी साध्वीद्वय की प्रेरणा से) अभिव्यक्त या विकसित हुआ या होता है। परन्तु यह कथन सिद्धान्त-सम्मत नहीं है। अर्हन्त या सिद्ध-परमात्मा को तथा भरत चक्रवर्ती या अन्य किसी भी स्वभावनिष्ठ साधक को जब भी अनन्त ज्ञान-केवलज्ञान या सम्यग्ज्ञान विकसित या अभिव्यक्त हुआ है या होता है, तब भी आत्मा के अनादि-अनन्त ज्ञान-स्वभाव के आधार से हुआ है या होता है। आत्मा में सुषुप्त, आवृत या कुण्ठित अनन्त ज्ञान को अभिव्यक्त, विकसित, अनावृत या जाग्रत करने का मूलाधार तो उसी आत्मा का स्वयं का ज्ञान-स्वभाव ही है। कोई भी परभाव, विभाव, विकार या निमित्त ज्ञान-स्वभाव को प्रकट या प्रादुर्भाव, अभिव्यक्त या विकसित करने में मूल आधार नहीं होता। अगर परभाव, विभाव या विकार के निमित्त से ज्ञान होता तो सबको एक सरीखा ज्ञान होना चाहिए, पर ऐसा नहीं होता। वास्तव में सम्यग्ज्ञान या अनन्त ज्ञान-केवलज्ञान आत्मारूप उपादान से होता है, परभावों-विभावों या विकारों के अवलम्बन से नहीं होता। वह ज्ञान से ही, ज्ञान में
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org