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________________ * १७४ * कर्मविज्ञान : भाग ९ * समझना चाहिए ज्ञान की यह तीव्र दशा है। आत्मा - अनात्मा का भेदविज्ञान की प्रेरणा देते हुए तथागत बुद्ध ने एक बार जेतवन में विराजते हुए अपने शिष्यों से पूछा- “यह जो लकड़हारा जेतवन में कुल्हाड़ी से लकड़ी काट रहा है, लकड़ी पर कुल्हाड़ी से चोट मार रहा है, क्या उस चोट की वेदना तुम्हें होती है ?” सभी शिष्य बोले-‘“नहीं, भगवन् !” इस पर बुद्ध ने कहा - " इसी प्रकार यदि शरीर को भी कुल्हाड़ी आदि से काटे तो उसे ( शरीर को ) भी वृक्ष की तरह पराया समझो । अर्थात् कुल्हाड़ी से शरीर पर कोई चोट मारे तो वृक्ष पर होने वाली चोट के समान पराये पर होने वाली चोट समझो। क्योंकि पंच महास्कन्ध से तुम ( आत्मा ) पृथक् ं हो। आत्मा-अनात्मा का यह भेदविज्ञान कर लो।" वास्तव में, व्यक्ति जब देह दशा से निकलकर देहात्म-बुद्धि का त्याग कर देता है तब भेदज्ञान की तीव्र अनुभूति होती है, जो ज्ञान की चारित्रदशा को प्रकट करती है। एक बार कवीन्द्र रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने वृश्चिकदंश की दु:सह पीड़ा के समय अपनी पत्नी को लिखा - वृश्चिकदंश की असह्य पीड़ा होने के बावजूद भी मैं एक डॉक्टर के रूप में तीसरे तटस्थ व्यक्ति की तरह देह में से अलग निकलकर देखता हूँ। यह है - आत्म-ज्ञान की चारित्र गुण के रूप में तीव्र दशा ! ज्ञान सुख (आनन्द) रूप है : कैसे-कैसे ? “Knowledge is Happiness. " यह वाक्य अंधी, गूँगी और बहरी 'हेलन केलर' का है। उसकी स्थिति ऐसी थी, मानो कोयले की खान में डाल दी गई हो । चारों ओर से अंधकार भरी दुनिया में वह अकेली मालूम होती थी । किन्तु आत्म-ज्ञान (मैं कौन हूँ? क्या कर सकती हूँ ?) इस प्रकार के ज्ञान का तीव्र प्रकाश मिलने के कारण उसने स्वयं को अन्धकारपूर्ण स्थिति में महसूस नहीं किया। उसने इसी ज्ञान के प्रताप से स्वाधीन - सुख (आत्म-सुख = आत्मानन्द = ज्ञानानन्द) का अनुभव किया। प्रज्ञाचक्षु पं. सुखलाल जी के उद्गार थे-“मृत्यु के तट पर ला देने वाले बाह्य आभ्यन्तर विक्षेपों के बीच भी मैं स्वयं को ज्ञान द्वारा इहलौकिक आनन्द में प्रविष्ट हुआ मानता हूँ।” सचमुच ज्ञान में इस सुख को सर्जन करने की, दुःख में से सुख निकालने की अद्भुत शक्ति है। यह सुख दुनियादारी के वैषयिक तथा पदार्थनिष्ठ काल्पनिक सुखों से उच्चतर है । कहना होगा - आत्म-शक्तियों के ज्ञान से होने वाला सुख (आनन्द) आन्तरिक है, स्वतंत्र - स्वाधीन, सहज और आत्म-स्वभावगत है। ज्ञान का आनन्द भी अद्भुत होता है । सम्यग्ज्ञान से ओतप्रोत व्यक्ति अपने भूख, प्यास, नींद, असुविधा, श्रम आदि के दुःख को बिलकुल भूल जाता है। ज्ञानपिपासु उपाध्याय यशोविजय जी और विनयविजय जी जब काशी में अनेक कष्टों, असुविधाओं, विघ्न-बाधाओं आदि की परवाह न करते हुए एक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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