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________________ * चतुर्गुणात्मक स्वभाव- स्थितिरूप परमात्मपद - प्राप्ति * १७३ * विश्वास नहीं था। वह प्रह्लाद को अपना शत्रु और विरोधी मानने लगा। उसने प्रह्लाद को बुलाकर कहा - "नादान लड़के ! परमात्मा और कोई नहीं, मैं ही हूँ। छोड़ इस धर्म और आत्मा - परमात्मा के ढोंग को । अन्यथा, तेरी मौत ही समझ ले । भक्त प्रह्लाद ने निर्भय और निःशंक होकर कहा - " पिताजी ! मुझे अपने परमात्मा और आत्मा पर अटल विश्वास है। ये तीनों ही शाश्वत और अविनाशी हैं। इन शाश्वत तत्त्वों का कोई नाश नहीं कर सकता। आप अपना दुराग्रह छोड़ दें।" परन्तु हिरण्यकश्यपु अपने हठाग्रह पर अड़ा रहा और उसने अपने पुरोहितों को आज्ञा दी - "इस दुष्ट को धधकती आग में झोंककर भस्म कर दो।” वैसा ही किया गया। लेकिन प्रह्लाद को परमात्मा के समान आत्मा के अमर अविनाशी स्वभाव पर पूर्ण श्रद्धा थी । प्रह्लाद के आत्मिक सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन (सत् पर विश्वास) के कारण आग उसकी आत्मा का कुछ भी विनाश न कर सकी, न ही वह प्रह्लाद के शरीर को जला सकी । प्रह्लाद परमात्मा के सच्चिदानन्द स्वरूप को अपनी आत्मा में अनुभव करता था । फलतः हिरण्यकश्यपु द्वारा प्रह्लाद को पहाड़ से गिराया गया, शस्त्रों से काटा गया, जहरीले साँपों से डसाया गया, हाथी के पैरों तले रौंदा गया, मगर उसका बाल भी बाँका न हुआ। क्योंकि उसने परमात्मा को आचार्य अमितगति के अनुसार - अपने हृदय में विराजमान कर लिया था - "जो अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान और अनन्त आत्म-सुख से ओतप्रोत है। संसार के समस्त विकारों से रहित है, निर्विकल्प समाधि (निश्चल निर्विचार ध्यान ) से ही अनुभव में आता है, जिसका परमात्मा नाम है, वह देवाधिदेव मेरे हृदय में विराजमान हों।””” वस्तुतः आत्मा नित्य, शाश्वत और अविनाशी है, ऐसे दृढ़ आत्म-ज्ञान वाले को मरने का भय नहीं है, विपदाओं को वह हँसते-हँसते समभावपूर्वक सह लेता है। इस प्रकार ज्ञान आत्मा के नित्य अस्तित्व के स्पष्ट दर्शन का परिचायक हो • जाता है। ज्ञान (तीव्र दशा में चारित्र) गुणरूप है “Knowledge is Virtue.” यह वाक्य सोक्रेटिस (सुकरात ) कहता था । ज्ञान आचरण में आते ही चारित्रात्मक गुण बन जाता है । उपाध्याय यशोविजय जी कहते थे - " ज्ञान की तीव्र दशा ही चारित्र है ।" शरीर पर चाहे जितनी चोटें पड़ें, अगर उस समय आत्मा-अनात्मा का भेदविज्ञान सक्रिय एवं हृदयंगम हो जाए तो १. यो दर्शन - ज्ञान - सुख-स्वभावः, समस्त संसार - विकार - बाह्यः । समाधिगम्यः परमात्म-संज्ञः, स देवदेवो हृदये ममाऽस्ताम् ॥” २. सुकरात द्वारा कथित वाक्य Jain Education International - सामायिक पाठ (अमितगतिसूरि), श्लो. १३ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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