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________________ * १७२ * कर्मविज्ञान : भाग ९ * साकार-निराकार ज्ञान) जीव (आत्मा) का लक्षण है।" 'भगवतीसूत्र' और 'उत्तराध्ययनसूत्र' में भी यही लक्षण मिलता है। विभिन्न पाश्चात्य विचारकों ने एकमात्र ज्ञानगुण में आत्मा के पूर्वोक्त चतुर्गुणात्मक स्वभाव से युक्त बताते हुए कहा है “Knowledge is Faith. Knowledge is Happiness. Knowledge is Virtue. Knowledge is Power.” अर्थात् ज्ञान ही श्रद्धा (विश्वास) रूप है, ज्ञान ही आनन्दमय (सुखमय) है, ज्ञान ही (चारित्रात्मक) गुण है और ज्ञान ही शक्ति (पावर = बलवीर्यमय) है। ज्ञान ही श्रद्धारूप है : कैसे, कितना लाभ, कितना बल ? वास्तव में आत्मा (आत्मा के स्वभाव = स्वरूप) का निश्चित और यथार्थ ज्ञान तभी होता है, जब आत्मा के प्रति रुचि, श्रद्धा और विश्वास हो अथवा आत्मा के तत्त्वज्ञान (साधक-बाधक तत्त्वों का यथार्थ दर्शन-स्पष्ट दृष्टि) हो। जिसे आत्मा के सम्बन्ध में दृढ़ श्रद्धा या स्पष्ट दर्शन हो जाता है कि आत्मा परमात्मा के समान अजर, अमर, अविनाशी, शाश्वत और अपने आप में अविकृत है, उसे शरीर या अंगोपांगों के छेदन-भेदन या मरण आदि से कोई दुःख, अनिष्ट या अप्रियता का संवेदन नहीं होता। वह अटल श्रद्धात्मक ज्ञान से युक्त आत्मा अपने ज्ञानरूप स्वभाव में ही रमण करती है। अपने शरीर पर होने वाले प्रहारों, वाचिक अपशब्दों या मानसिक दुर्भावनाओं से उसका मन-मस्तिष्क जरा भी विचलित नहीं होता। बड़ी-से-बड़ी विपत्ति, संकट या इष्ट-वियोग-अनिष्ट-योग की दुःखद परिस्थिति आने पर भी अपनी आत्म-श्रद्धा से वह डगमगाता नहीं। वह उस उपसर्ग, कष्ट या परीषह को धैर्य और शान्ति के साथ हँसते-हँसते समभावपूर्वक सह लेता है। क्यों? क्योंकि उसमें यह निश्चित ज्ञान है कि आत्मा का कभी विनाश नहीं होता, वह नित्य, शाश्वत और परमात्मा के समान अजर-अमर है।' ___ भक्त प्रह्लाद को आत्मा पर पूर्ण श्रद्धा थी कि परमात्मा के समान मेरी आत्मा भी सत् अविनाशी एवं त्रिकालस्थायी है। उसका कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता। आत्मा का तत्त्वज्ञान और दर्शन उसके रोम-रोम में कूट-कूटकर भरा हुआ था। परन्तु उसके पिता हिरण्यकश्यपु को आत्मा, परमात्मा या आत्म-धर्म पर कतई १. (क) उपयोगो लक्षणम्। (ख) उवओगलक्खणे जीवे। (ग) जीवो उवओगलक्खणो। -तत्त्वार्थसूत्र, अ.२ -भगवतीसूत्र, श.३, उ. १० -उत्तराध्ययन, अ. २८, गा. १० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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