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* १६८ * कर्मविज्ञान : भाग ९ *
के लिए सोई रहती हैं, वहाँ संयमी की वे पाँचों जागती रहती हैं।'' आशय यह है कि सम्यग्दृष्टि निद्राधीन होते हुए जाग्रत रहता है। द्रव्यनिद्रा में भी जाग जाए ऐसी बात नहीं है, किन्तु सुषुप्ति में भी उसे निज स्वभाव की प्रतीति होती है। भरनींद में से उठाकर कोई पूछे कि “तू कौन है ?" तो वह कहता है-“मैं आत्मा हूँ।"
जिस प्रकार सामान्य मानव को अपने नाम की प्रतीति रहा करती है। गाढ़ निद्रा में भी सोया हुआ हो, उस समय कोई उसका नाम लेकर पुकारता है, तो वह उठकर जवाब देता है। मनुष्य को अपना नाम कितना प्रिय होता है। यद्यपि नाम की स्थिति (कालावधि) बहुत लम्बी नहीं होती, फिर भी उसकी स्पष्ट प्रतीति तो होती ही है। मनुष्य की जितनी आय होती है, उतनी ही आय उसके नाम की होती है, उससे अधिक नहीं। फिर भी प्रत्येक जन्म में प्राणी को अपने नाम की प्रतीति सर्वाधिक होती है। किन्तु सम्यग्दृष्टि आत्मा को नाम से भी अधिक प्रतीति अपनी आत्मा की होती है, क्योंकि आत्मा की तो कोई आयु नहीं होती; वह तो अनामी और शाश्वत है, अजन्मा है, प्रत्येक जन्म में साथ ही रहता है और फिर आत्मा तो वह स्वयं ही है। अपनी प्रतीति तो स्वयं को होती ही है, होनी ही चाहिए। सामान्य. आत्मा तो देहादि की भ्रान्ति में यह भूल जाता है कि मैं आत्मा हूँ। परन्तु सम्यग्दृष्टि तो इस भ्रान्ति से बाहर निकल चुका है, उसे निकल चुकना ही चाहिए, क्योंकि उसने तो आत्मा की गहरी अनुभूति कर ली होती है, इसलिए सुषुप्त अवस्था में भी उसे आत्मा की-आत्म-स्वभाव की प्रतीति रहती है। आशय यह है कि सम्यग्दृष्टि साधक की सुषुप्त दशा में भी प्रतीतिधारा प्रवाहित होती रहती है। निष्कर्ष
निष्कर्ष यह है कि सम्यग्दृष्टि आत्मा जीवन-व्यवहार की किसी भी अवस्था में हो, उसे आत्म-विस्मृति नहीं होती। उसके अन्तःकरण में सतत आत्म-स्मृति अथवा आत्म-स्वभाव की स्मृति (जागृति) अनुभव, लक्ष्य और प्रतीति की धारा के रूप में बहती रहती है। दूसरे शब्दों में उसकी अन्तरात्मा में निवृत्तिदशा में अनुभवधारा, प्रवृत्तिदशा में लक्ष्यधारा और सुषुप्तदशा में प्रतीतिधारा बहती रहती है।' 'दशवैकालिकसूत्र' में सभी अवस्थाओं में जागृति को इस प्रकार ध्वनित किया गया है"दिन हो या रात हो, अकेला हो या परिषद् के मध्य में बैठा हो, सोया हो या जागता हो, साधक सतत आत्म-भावों की अनुभव, लक्ष्य और प्रतीति की धारा में बहता रहे।"
इस प्रकार आत्म-स्वभाव में सतत दृढ़ स्थिरता ही परमात्मभाव या परमात्मपद की प्राप्ति का मूलाधार है।
१. पानी में मीन पियासी' से भाव ग्रहण, पृ. ४१७-४१८ २. से दिआ वा राओ वा, एगओ वा परिसागओ वा, सुत्ते वा जागरमाणे वा ।
-दशवैकालिकसूत्र, अ. ४, षड्जीवनिकाय
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