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* परमात्मपद-प्राप्ति का मूलाधार : आत्म-स्वभाव में स्थिरता * १६७ *
और विरक्त रहता है। उसका लक्ष्य होता है-आत्म-ज्ञान या आत्म-स्वभाव का ज्ञान । इस कारण पंचेन्द्रिय विषयों का उपभोग करने पर भी उसके कर्मबन्ध नहीं होता, अथवा अत्यल्प शुभ कर्मों का बन्ध होता है, क्योंकि उनके प्रति उसके मन में या तो राग-द्वेष नहीं होता या होता है तो शान्त, प्रशस्त या मन्द होता है।
सम्यग्दृष्टि के व्यावहारिक जीवन में भी लक्ष्यधारा स्पष्ट होती है इतना ही नहीं, सम्यग्दृष्टि आत्मार्थी साधक यदि राजा हो, चक्रवर्ती हो, सत्ताधीश हो या कोट्यधीश हो, उसे राज्य की धुरा वहन करनी हो या अपना व्यापार करना हो, यहाँ तक कि राजा को शत्रु राजा के साथ प्रजा की रक्षा के लिए, न्याय के लिए युद्ध भी करना पड़े, अथवा धनिक व्यापारी को व्यापार में अत्यन्त घाटे की परिस्थिति में पड़ना पड़े, फिर भी ऐसी विकट परिस्थिति में उक्त सम्यग्दृष्टि राजा के अन्तर में अनधिकृत राज्यवृद्धि का लोभ नहीं होता, तथैव सम्यग्दृष्टि धनिक व्यापारी के अन्तर में अनन्तानुबन्धी कषाय नहीं आते। ये और इस प्रकार के अन्य सम्यग्दृष्टि किसी भी पद, सत्ता, अधिकार आदि पर हो, अपनी आत्मा में, स्वभाव के प्रति पूर्ण जागरूक होते हैं। सम्यग्दृष्टि राजा सोचता है कि मेरा कार्य युद्ध नहीं है। अगर प्रतिपक्षी युद्ध करना न चाहे तो वह भी चलाकर युद्ध नहीं करता। परस्पर समाधान या समझौते से वह सुलह और शान्ति करने का प्रयत्न करता है। इतनी तैयारी रखता है वह। उसकी रुचि युद्ध करने की नहीं होती। सिर्फ राजा के कर्त्तव्य के नाते ही, अन्याय-प्रतीकार के लिए ही, उसे युद्ध करना पड़ता है। अन्तर से वह उससे अलग रहता है। इसी प्रकार की लक्ष्यधारा सम्यग्दृष्टि व्यवसायी की होती है।
तीसरी धारा : सुषुप्त अवस्था में भी आत्मा की प्रतीतिधारा सम्यग्दृष्टि के भी आठों ही कर्म उदय में आते हैं। दर्शनावरणीय कर्म के उदय से नींद आती है। उसे नींद भी लेनी पड़ती है। परन्तु सम्यग्दृष्टि स्वभावनिष्ठ व्यक्ति की निद्रा कुम्भकर्णी नहीं होती। वह अघोरी के समान नींद नहीं लेता है। वह निद्राधीन होते हुए भी जाग्रत होता है। 'आचारांगसूत्र' में बताया है कि “असंयमी अज्ञानीजन सदा सोये रहते हैं, मुनि (ज्ञानीजन) (सोये हुए भी) सदा जाग्रत रहते हैं।' 'भगवद्गीता' में भी इसी तथ्य को स्पष्ट किया गया है-“जो समस्त प्राणियों के लिये निशा (रात्रि = सुषुप्ति) है उसमें संयमी जाग्रत रहते हैं। जिसमें सर्वप्राणी जागते रहते हैं, वह द्रष्टा मुनि के लिए निशा है।" इसका रहस्यार्थ है-“जहाँ असंयमी अज्ञजनों की पाँचों इन्द्रियाँ विषयों में अन्धाधुंध प्रवृत्त होती रहती हैं, वहाँ संयमी की वे सोई रहती हैं। तथैव जहाँ असंयमी की पाँचों इन्द्रियाँ अध्यात्म विकास
१. 'पानी में मीन पियासी' से भाव ग्रहण, पृ. ४१६-४१७
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