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* १६६ * कर्मविज्ञान : भाग ९ *
प्रथम धारा : निवृत्ति के क्षणों में अनुभवधारा ___ सामान्य मानव निवृत्ति (फुरसत) के क्षणों में मनोरंजन के साधन खोजता है।. वह टाइम पास करने (समय गुजारने) के लिए विविध पंचेन्द्रिय विषय पोषण के आलम्बन ढूँढ़ता है, सैर-सपाटे करता है और कोई मनोरंजन का साधन न मिले तो भूतकाल की स्मृतियों और भविष्य की कल्पनाओं में खो जाता है अथवा ऊलजलूल विचारों तथा आर्त्त-रौद्रध्यान के चिन्तन में घण्टों बिता देता है। परन्तु उन निवृत्ति के क्षणों में आत्मानुभव का आनन्द नहीं लूट सकता, स्वभाव के अनुभव की मस्ती में नहीं रह सकता। इसके विपरीत निजानन्द की अनुभूति किये हुए सम्यग्दृष्टि साधक की आत्म (चित्त) दशा निवृत्ति के क्षणों में समग्र संसार से, संसार के वैषयिक सुख-प्रवाहों से तथा परभावों-विभावों से विरक्त-उदासीन होकर निज आत्मा में-आत्म-भाव में ही रमण करती है। जो एक बार निज शुद्ध आत्मा की गहरी अनुभूति का आनन्द ले चुका होता है, उसका आस्वाद लेने की उसकी पुनः-पुनः तीव्र उत्सुकता होती है। इस कारण वह संसार से पर होने की निवृत्ति के क्षण प्राप्त करने की उत्कण्ठा जागती है। जब भी उसे निवृत्ति मिलती है, उसकी उपयोगधारा निज स्वभाव के अनुभव में संलग्न हो जाती है। ऐसे मुमुक्षु साधक के चित्त में निवृत्ति के क्षणों में आत्म-स्वभाव की अनुभवधारा प्रवाहित होती है।' दूसरी धारा : प्रवृत्ति के क्षणों में लक्ष्यधारा
संसारस्थ जीव को निवृत्ति के क्षण बहुत कम मिलते हैं। जिसके साथ देहादि उपाधियाँ लगी हुई हैं, उसे देहादि से सम्बद्ध उस-उस प्रवृत्ति में प्रवृत्त होना पड़ता है। किन्तु सम्यग्दृष्टि साधक जब भी खाने-पीने, सोने-उठने, चलने-फिरने आदि देहादि की क्रियारूप प्रवृत्ति करता है, तब भी उसका लक्ष्य निज स्वभाव में संलग्न होना है। वह स्पष्ट रूप से जानता-मानता है कि देहादि की क्रिया मेरी (आत्मा) की क्रिया नहीं है। मेरा (आत्मा का) कर्त्तव्य भी नहीं है। मैं (आत्मा) स्वरूपतः अशरीरी हूँ, इन्द्रियातीत, देहातीत (शुद्ध आत्मा) तत्त्व हूँ। आत्मा के निज स्वरूप में स्वानुभव में ऐसी क्रियाओं का महत्व नहीं है। परन्तु यह आत्मा अभी देहधारी है। कर्मोदयवश इस कारण देह की क्रिया करनी पड़ती है। मेरा लक्ष्य यह नहीं है। मेरा (आध्यात्मिक) लक्ष्य तो केवल मेरी आत्मा के या आत्म-स्वभाव के ज्ञान या अनुभव में स्थिरता प्राप्त करना है। ऐसी आत्मानुभव दशा शरीरादि के प्रति आसक्ति को क्रमशः मन्द कर डालती है। राग-द्वेष को भी मन्द कर डालती है। सांसारिक लोगों की स्थूल दृष्टि में ऐसा लक्ष्य के प्रति जागरूक सम्यग्दृष्टि साधक पाँचों इन्द्रियों के विषयों का उपभोग करता दीखता है, मगर वह अन्तर में उनसे अलिप्त, उदासीन
१. (क) 'पानी में मीन पियासी' से भाव ग्रहण, पृ. ४१५-४१६
(ख) आत्मसिद्धिशास्त्र, गा. १११
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