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* परमात्मपद-प्राप्ति का मूलाधार : आत्म-स्वभाव में स्थिरता * १६५ *
निजानुभूति में बदलाव आता रहता है। परिणामों की धारा अखण्ड रूप से निज-स्वभाव में नहीं रहती। केवलज्ञान न होने तक जीव ने सम्यक् पुरुषार्थ की दिशा में निज-स्वभाव का ज्ञान-भान बहुत किया होगा, किन्तु सतत-निरन्तर अखण्ड निजानुभूति नहीं रही। जबकि केवलज्ञान की प्राप्तिरूप तेरहवें गुणस्थान में तथा अयोगी अवस्थारूप चौदहवें गुणस्थान में केवलज्ञान की-स्वभाव-ज्ञान की अनुभूति अखण्ड होती है। दोनों गुणस्थानों की परिणामधारा एक-सरीखी होती है। तेरहवें गुणस्थान में केवलज्ञानी अर्हत् परमात्मा सशरीर होते हैं, उनके मन-वचन-काया का योग होता है, फिर भी वे वीतराग परमात्मपद को प्राप्त सर्वथा जीवन्मुक्त होते हैं। केवली अर्हत्-परमात्मा और सिद्ध-परमात्मा की आन्तरदशा में कुछ भी अन्तर नहीं होता। केवली परमात्मा देह होते हुए भी देहातीतदशा का अनुभव करते हैं। उनका देहाध्यास तो कभी का छूट चुका होता है। इसलिए निजानुभूति के अखण्ड ज्ञान में उनका शरीर कभी बाधक नहीं बनता।'
स्वभावनिष्ठ की स्वभाव में स्थिरता क्रमशः तीन धाराओं में चतुर्थ (सम्यग्दर्शन के) गुणस्थान से लेकर दसवें गुणस्थान तक परिणामों की धारा सतत निज-स्वभाव की अनुभूति में नहीं रहती, क्योंकि तब तक वह छद्मस्थ संसारी जीव है, अभी तक समस्त कर्मों (या चार घातिकर्मों) से रहित नहीं हुआ है, इसलिए उसके कर्मजन्य उपाधियाँ तो होती हैं, चित्त भी अन्यान्य कार्यों में प्रवृत्त होता रहता है, फिर भी उसकी चित्तदशा स्वभाव के ज्ञान = अनुभव के रंग से रँगी हुई होती है। ऐसे सम्यग्दृष्टि आत्मार्थी आत्मा की भिन्न-भिन्न व्यावहारिक अवस्थाओं में आत्म-दशा (चित्तदशा) कैसी रहती है? इसका स्पष्ट चित्रण आत्म-सिद्धिशास्त्र में इस प्रकार किया गया है____ “वर्ते निजस्वभावनो, अनुभव, लक्ष, प्रतीत।
वृत्ति वहे निजभावमां, परमार्थे समकीत॥" इस पद्य में सर्वप्रथम उस सम्यग्दृष्टि आत्मा के स्व-स्वभाव की अनुभवधारा का उल्लेख किया गया है। अर्थात् जब ऐसा साधक निवृत्ति के क्षणों में होता है, तब उसका समग्र लक्ष्य आत्म-स्वभाव का अनुभव करने में होता है। वह निज आत्मा में गहरा उतर जाता है। आत्मा के ज्ञान, दर्शन, सुख और बल (वीर्य), इन मूलगुणों में ही रमण करने लगता है। उसका मन-मस्तिष्क उस समय अन्यत्र कहीं नहीं जाता। उस समय वह अपने (आत्मा) में ही स्वयं ज्ञानानन्द लूटता है। उस समय उसकी दशा निजानुभव (स्वभावानुभव) से भिन्न नहीं होती। वह स्वानुभव की क्रमशः अनुभवधारा, लक्ष्यधारा और प्रतीतिधारा में बहता है।
१.:: ‘पानी में मीन पियासी' से भाव ग्रहण, पृ. ४१५
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