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* १६४ * कर्मविज्ञान : भाग ९ *
"केवल निज-स्वभावजूं, अखण्ड वर्ते ज्ञान।
कहीए केवलज्ञान ते, देह छतां निर्वाण ॥" आत्मा ज्ञान की भूमिका में ही स्वाभाविक रह सकती है, संवेदन की भूमिका में नहीं
निष्कर्ष यह है कि आत्मा ज्ञान की भूमिका में ही स्वभावनिष्ठ रह सकती है, संवेदन की भूमिका में नहीं। आचार्य अमितगति के शब्दों में पूर्वोक्त तथ्य का रहस्य यह है कि ज्ञानी ज्ञान के धरातल पर जीता है और अज्ञानी संवेदन के धरातल पर। ज्ञानी = सम्यग्ज्ञानी मानव घटना के प्रति साक्षी या ज्ञाता द्रष्टा बनकर रहता है, उससे प्रभावित, लिप्त या आसक्त नहीं होता। परन्तु अज्ञानी मानव रागादिवश होकर उस घटना से प्रभावित, लिप्त या राग-द्वेषाविष्ट हो जाता है। वह प्रियता-अप्रियता आदि के रूप में संवेदन करता है। इसके विपरीत ज्ञाता-द्रष्टा एवं जागरूक स्वभावनिष्ठ साधक जो भी घटना, मानसिक-वाचिक-कायिक क्रिया या परिस्थिति होती है. उसे जानता-देखता है, किन्तु उसका संवेदन नहीं करता। उसकी कषायचेतना शान्त होती है, उसमें रागादि विकल्प नहीं उठते। उसमें एकमात्र ज्ञानचेतना ही शेष रहती है। कोई भी पर-पदार्थ न ही उसे प्रिय होता है, न ही अप्रिय; या न कोई इष्ट होता है, न कोई अनिष्ट; न ही कोई अनुकूल होता है और न प्रतिकूल । ‘आचारांगसूत्र' में इसी तथ्य की ओर इंगित किया गया है
“अणन्न परमं नाणी, नो पमाए कयाइ वि।" -जिसे आत्म-स्वभाव (आत्मा के ज्ञानभाव) में रमणता के सिवाय अन्य कुछ भी परम = उत्कृष्ट नहीं होता, वह ज्ञानी कदापि प्रमाद नहीं करता। (सदैव सतत आत्म-स्वभाव में जाग्रत रहता है।) ज्ञान की यानी स्वभाव की अखण्ड अनुभूति केवलज्ञान होने पर ही होती है
जिसमें सिर्फ अपने स्वभाव का ही ज्ञान होता है, अन्य किसी का नहीं, जीव की यह दशा बारहवें गुणस्थान में पहुँचने पर होती है। जब तक बारहवें गणस्थान तक नहीं पहुँचता, तब तक ज्ञान की अखण्ड अनुभूति नहीं होती, उसमें उतार-चढ़ाव दोनों होते रहते हैं, लगातार एक सरीखी स्वभाव दशा (जो पूर्ण परमात्म दशा है, उस) की अनुभूति नहीं होती। गुणस्थान के बदलने के साथ ही
१. (क) 'पानी में मीन पियासी' से भाव ग्रहण, पृ. ४१४, ४१२
(ख) आत्मसिद्धि (श्रीमद् राजचन्द्र), ११३ (ग) आचारांगसूत्र, श्रु. १, अ. ५, उ. ५
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