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________________ * परमात्मपद-प्राप्ति का मूलाधार : आत्म-स्वभाव में स्थिरता * १६३ * में राग-द्वेष, मोह, अहंत्व-ममत्व का, कषायों का कीचड़ मिल जाता है, मिथ्यात्व और अज्ञान का कालुष्य भी घुल-मिल जाता है। ऐसी स्थिति में ज्ञान की शुद्ध धारा नहीं रहती, वह संवेदन की धारा बन जाती है। उसके शुद्ध ज्ञान पर अज्ञान, मोह, मिथ्यात्व, राग-द्वेष, कषाय आदि छा जाते हैं। अपने स्वभाव में स्थिर रहने का अर्थ है-अपने ज्ञान में स्थिर रहना, क्योंकि आत्मा और ज्ञान दोनों अभिन्न हैं। उदाहरण के तौर पर-एक साधक के सामने पट्टा पड़ा है। वह पट्टे को देखता है। पट्टे को वह पट्टे के रूप में जानता है, मानता है, इससे अधिक कुछ नहीं। यही आत्मा का दर्शन है, ज्ञान है, आत्म-स्वभाव में रमण है। ऐसा स्वभावनिष्ठ साधक उस पट्टे के साथ प्रिय-अप्रिय, मनोज्ञ-अमनोज्ञ, अच्छा-बुरा, राग-द्वेष या अहंत्व-ममत्व आदि का कोई संवेदनात्मक सम्बन्ध स्थापित नहीं करता। वह सिर्फ पट्टे को जानता-देखता है। इसी को आध्यात्मिक भाषा में कहा जाता है-"वह (आत्मा) ज्ञान को जानता है।" ज्ञान और ज्ञानवान (आत्मा) दोनों सर्वथा अभिन्न नहीं हैं तो सर्वथा भिन्न भी नहीं हैं। निश्चयदृष्टि से तो दोनों अभिन्न हैं। इस दृष्टि से ज्ञान को जानने का अर्थ हुआआत्मा को-आत्म-स्वभाव को जानना, मानना और उसी में रमण करना।' ज्ञान की भूमिका अस्वीकार की है; संवेदन की है-स्वीकार की वस्तुतः प्रत्येक आत्मा के समक्ष दोनों स्थितियाँ हैं-एक अस्वीकार की, दूसरी स्वीकार की। किसी भी सजीव-निर्जीव पर-पदार्थ को सिर्फ जानना-देखना, किन्तु उसके प्रति किसी प्रकार का प्रिय-अप्रिय आदि का संवेदन न करना अस्वीकार की स्थिति है। कोरा ज्ञान या कोरा दर्शन अस्वीकार की स्थिति है। वह शुद्ध आत्मा का स्वभाव है। जब आत्मा पर-भाव का अस्वीकार कर देता है, तब स्वभाव में स्थित आत्मा में पर-भाव का प्रभाव, संवेदन, संक्रमण या प्रवेश नहीं हो सकता। संवेदन करना स्वीकार की स्थिति है। सवेदन स्वभावरूपी चन्द्रमा को परभावरूपी बादलों से ढक लेता है। ... शुद्ध आत्मा के साथ जब रागादि का संवेदन होता है, तब वह आत्मा के शुद्ध ज्ञान, दर्शन, आनन्द और शक्ति को आवृत, स्खलित, कुण्ठित एवं विकृत कर देता है। जहाँ केवल अस्वीकार की भूमिका होती है, वहाँ एकमात्र निज-स्वभाव का = स्वरूप का ज्ञान अखण्ड रूप से रहता है। यही परमात्मभाव की-केवलज्ञान की दशा है, जिसमें आत्मा और ज्ञान दोनों अभेदरूप से परिणत हो जाते हैं। जो आत्मा वही ज्ञान और जो ज्ञान वही आत्मा। आत्मा अर्थात् ज्ञान का पिण्ड। इस प्रकार की ज्ञान की अखण्डता ही केवलज्ञान है, जिसमें सिर्फ अपने स्वभाव का ही एकमात्र ज्ञान होता है, अन्य किसी का नहीं। श्रीमद् राजचन्द्र ने भी इसी तथ्य का समर्थन किया है १. (क) आचारांगसूत्र, श्रु. १, अ. ३, उ. ३ (ख) 'पानी में मीन पियासी' से भाव ग्रहण, पृ. ४१३-४१४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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