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________________ * २८ * कर्म सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु से बँधकर उसके स्वाभाविक गुणों का न्यूनाधिक रूप से घात करने वाले, उन्हें क्षति पहुँचाने वाले घातिकर्म या घात्यकर्म चार हैं-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय । इन घातिकर्मों की अनुभाग-शक्ति का प्रभाव आत्मा के ज्ञान, दर्शन आदि गुणों पर पड़ता है, जिससे आत्मिक गुणों और शक्तियों का विकास अवरुद्ध हो जाता है। ये आत्मा के अनन्त ज्ञानादि चार मुख्य गुणों का न्यूनाधिक धात करने के साथ-साथ उसके अनुजीवी गुणों, क्षमादि दशविध धर्मों (आत्म-स्वभावों) का विकास भी अवरुद्ध कर देते हैं। घातिकर्मों का उन्मूलन हुए बिना केवलज्ञान - केवलदर्शन तथा मोक्ष की उपलब्धि नहीं हो सकती नही अनन्त अव्याबाध-सुख और अनन्त आत्म-शक्ति प्रकट हो सकती है। घातिकर्मों के भी दो भेद हैंसर्वघाति और देशघाति । इनके विपरीत चार अघातिकर्म हैं- वेदनीय, आयु, नामकर्म और गोत्रकर्म। ये आत्मा के ज्ञानादि मौलिक गुणों का घात या ह्रास तो नहीं कर पाते, क्योंकि ये चारों भुने हुए बीज के समान होते हैं, जिनमें नये कर्मों का उपार्जन करने का सामर्थ्य या कर्म-परम्परा का अविच्छिन्न प्रवाह जारी रखने का सामर्थ्य नहीं होता। अतः ये मौलिक आत्म- गुणों को हानि न पहुँचाकर, केवल आत्मा के प्रतिजीवी गुणों (अव्याबाध मुख, अटल अवगाहना, अमूर्त्तत्व और अगुरुलघुत्व) को प्रकट नहीं होने देते, इनका ह्रास करते हैं और जीव को संसार में रोके रखते हैं। विदेहमुक्त (सर्वकर्ममुक्त) होने में ये चार अघातिकर्म प्रतिबन्धक हैं। जब तक शरीर है, आयुष्यकर्म शेष है तथा कुछ कर्मों का भोगना बाकी है, तब तक शरीर से सम्बन्धित इन चारों भवोपग्राही अघातिकर्मों की सत्ता बनी रहती है। मोहकर्म के क्षय हो जाने से ये चारों जली हुई रस्सी के बट की तरह निष्फल हो जाते हैं। इनका कार्य सिर्फ शरीर, आयु और पूर्वबद्ध कर्मफल के भोग को बनाये रखना है। चारों अघातिकर्मों का सर्वथा क्षय होते ही वह जीवन्मुक्त सदेह अर्हन्त वीतराग परमात्मा आठों ही कर्मों से मुक्त होकर सिद्ध, बुद्ध, जन्म-मरणादि से सर्वथा रहित विदेह परमात्मा बन जाते हैं। अतः मुमुक्षु आत्मा को घाति - अघाति कर्मों का स्वरूप जानना अत्यावश्यक है। कर्म का त्रिकालकृत रूप और स्वरूप कर्म के इतने रूप और स्वरूप के निरूपण करने के बाद भी कई लोग इस भ्रम में रहते हैं कि "हम अभी तो धन, वैभव, सुख-सुविधा, ऐश्वर्य और सुख-सामग्री से सम्पन्न हैं। हमारे पीछे कोई भी कर्म नहीं हैं। अब कोई भी कर्म हमारा पीछा करने वाला नहीं है। अब हम सब प्रकार से स्वस्थ, शान्त, सुखी और स्वतंत्र हैं। सांसारिक पदार्थों का मनचाहा उपभोग कर सकते हैं।" वे यह भूल जाते हैं कि हमारी आत्मा के जन्म-जन्मान्तर से संचित तथा इस जन्म में भी पूर्ववद्ध कर्म, जो अभी संचित और सुषुप्त पड़े हैं, वे कभी भी उदय में आकर दुःख, संकट, व्याधि, विपत्ति, उपद्रव आदि के रूप में व्यक्त से होकर फल देने के लिए सकते हैं तथा वर्तमान में भी जो अविवेकपूर्वक शुभ या अशुभ कर्म बाँध रहे हैं, उनका फल भी भविष्य में भोगना ही पड़ेगा। अतः कर्म को केवल वर्तमानकालिक दृष्टि से न देखकर उसके त्रैकालिक रूप का प्रत्यवेक्षण करना चाहिए। इसी दृष्टि से कर्म के पूर्वोक्त विविध रूप बताते हुए कर्मविज्ञान ने कर्म के सम्बन्ध में वर्तमानकालिकता की भ्रान्ति को तोड़ने के लिए त्रिकालकृत त्रिविधरूप का सांगोपांग निरूपण किया है। उद्यत वैदिक-कर्मविज्ञान की दृष्टि से जिन्हें क्रियमाण, संचित और प्रारब्ध कहा जाता है, उसे ही जैन- कर्मविज्ञान में बध्यमान, सत्तास्थित और उदयागत कहा जाता है। अन्तर इतना ही है कि वैदिककर्मवाद में प्रत्येक क्रिया, प्रवृत्ति या चेष्टा को क्रियमाण कर्म माना जाता है. परन्तु जैन- कर्मवाद प्रत्येक क्रिया. प्रवृत्ति या चेष्टा को समागत कर्म मानता है, किन्तु बध्यमान कर्म नहीं । बध्यमान कर्म उसी को मानता है, जिस प्रवृत्ति या क्रिया के साथ कपाय या राग, द्वेष, मोहादि विभाव हो। दूसरा अन्तर यह है कि वैदिक-कर्मवाद का सिद्धान्त है कि जो कर्म संचितरूप में पड़ा है, उसे प्रारब्धरूप में आने पर उसी रूप में फल भोगना पड़ता है। जैन- कर्मविज्ञान का इसमें मतभेद है-यदि संचित कर्म गाढ़, चिक्कण और निकाचितरूप में बँधा है तो उसको उदय में आने पर उसका फल उसी रूप में भोगना पड़ेगा, किन्तु यदि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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