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________________ * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु * २७ * आशय के अनुसार भी कर्म के शुभाशुभत्व का निर्णय किया जाता है। बन्धक और अबन्धक कर्म की दृष्टि से विचार करें तो शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के कर्म बन्धक हैं, एकमात्र शुद्ध कर्म ही अबन्धक है। छद्मस्थ साधक ज्ञाता-द्रष्टा एवं समभावी रहकर शुद्धोपयोग में रहने के लिए प्रयत्नशील रहता है, परन्तु प्रशस्त रागवश, बीच-बीच में प्रत्येक क्रिया या प्रवृत्ति में अप्रमत्त होकर यलाचारपूर्वक चर्चा करता है तो अशुभ योग का निरोध करके शुभ योग में प्रवृत्त रहता है। शुभ और शुद्ध कर्म के अन्तर को समझना आवश्यक ____कर्म शब्द में शुभ-अशुभ, कुशल-अकुशल, बन्धक-अबन्धक, सकाम-निष्काम, उत्कृष्ट-निकृष्ट, द्रव्य-भाव, ज्ञात-अज्ञात आदि अनेक अर्थ और भाव छिपे हैं। जो व्यक्ति पूर्वाग्रह, हठाग्रह एवं परम्परा के वशीभूत होकर कर्म शब्द के इस रहस्यार्थ को नहीं जानता-मानता, न ही जानने-मानने की बात सोचता है, कर्मचेतना और कर्मफलचेतना के चक्कर में पड़ा हुआ वह व्यक्ति 'कर्म' के अधीन होकर, उस कर्म के नचाये नाचता रहता है। शुभ और शुद्ध कर्म के अन्तर और कारण को भी वह नहीं पहचान पाता। शुभ और शुद्ध कर्म भी सकाम और निष्काम कर्म के रूप में कैसे ? ____ कर्मविज्ञान ने इस विषय में और गहराई से चिन्तन प्रस्तुत किया है-जैनदर्शन और जैनशास्त्रों में बताया गया है-बाह्य-आभ्यन्तर तपश्चरण, ज्ञानादि पंच आचार, सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप शुद्ध धर्म का आचरण, व्रत-महाव्रत, त्याग, नियम, प्रत्याख्यान, सामायिक, पौषध आदि धर्माचरण, जो कर्मनिर्जराकारक शुद्ध कर्म हैं अथवा प्रशस्त रागवश शुभ कर्म हैं, उनमें इह-पारलौकिक कामना, नामना, प्रसिद्धि, स्वार्थलिप्सा, हिंसादि पापवृत्ति आदि सबको कैसे-कैसे दूषित कर देते हैं ? ये सभी शुद्ध कर्म या प्रशस्त शुभ कर्म के बदले कैसे काम्यकर्म = सकामकर्म या कामनामूलक कर्म बन जाते हैं ? इसका सकाम और निष्काम कर्म के रूप में सुन्दर विश्लेषण कर्मविज्ञान में किया गया है। साथ ही काम शब्द में सुषुप्त अर्थों का क्रम भी वासना, राग, कामना, आकांक्षा, इच्छा, लालसा, आसक्ति (मूर्छा-गृद्धि) एवं तृष्णा के रूप में बताया है। ज्ञातृत्व, कर्तृत्व और भोक्तृत्व; ये तीनों कृतक कर्म भी सकाम और निष्काम रूप से दो प्रकार के हो जाते हैं। फलतः आकांक्षा या वासना से लेकर तृष्णा तक के क्रम में से अथवा भगवतीसूत्र में बताये हुए कांक्षामोहनीय कर्म के किसी भी प्रकार के रूप में की गई स्थूल या सूक्ष्म इच्छा से युक्त होकर फल भोयाकांक्षा करना सकामकर्म है, इसके विपरीत किसी भी प्रकार के स्वार्थ या पूर्वोक्त काम से निःस्पृह, निरपेक्ष रहकर केवल लोकसंग्रह, परहितार्थ या परार्थ की दृष्टि से किये जाने वाले कर्म निष्काम हैं। यही प्रत्येक धर्मक्रिया या परार्थ प्रवृत्ति के पीछे सकाम और निष्काम कर्म की पहचान है। जैनदृष्टि से चतुर्थ गुणस्थान में या उससे आगे के गुणस्थानों में मन्दकषाय की स्थिति में निष्कामभाव आ सकता है। किन्तु तीव्र कषाय की स्थिति में नहीं। इस दृष्टि से निष्काम कर्म और अकर्म (विशुद्ध कर्म = अबन्धक कर्म) का अन्तर स्पष्टतः समझा जा सकता है। निष्काम कर्म में स्व-पर-हित, स्व-पर-कल्याण का शुभ विकल्प या प्रशस्त रागभाव रहता है, जबकि अकर्म में रागादिभाव, कषायभाव या मोहादि बिलकुल नहीं होता। परन्तु जैनदर्शन निष्काम कर्म के पीछे सम्यग्दर्शन (सम्यग्दृष्टि) का होना अनिवार्य बताता है। अतः शम (या सम), संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्था, निष्काम कर्म में सम्यग्दृष्टि को पहचानने के खास चिह्न हैं। सकामकर्मी में कर्तृत्व और भोक्तृत्वभाव होता है, जबकि निष्कामकर्मी कर्तृत्व और भोक्तृत्व से निरपेक्ष रहता है। इस दृष्टि से सकाम कर्म में संकीर्ण तुच्छ स्वार्थ होता है, जबकि निष्काम कर्म में स्व-पर-हितार्थ विस्तीर्ण परमार्थरूप स्वार्थ होता है, आत्मौपम्य बुद्धि होती है। कर्मों के दो कुल : घातिकुल और अघातिकुल कर्म के इतने बताने के बावजूद भी कर्मों की भीड़ में से उन कर्मों के कुल को आम आदमी के लिए पहचानना कठिन है, जो आत्मा के निजी गुणों को क्षति पहुंचाते हैं अथवा ऐसे कर्मकुल को भी पहचानना कठिन है, जो आत्मा के गुणों को तो आवृत, कुण्ठित या दमित तो नहीं कर पाते. परन्त वे आत्मा पर प्रभाव डालकर उन घातिकलों के प्रभाव में आकर मन में दीनता-हीनता अथवा अहंकारग्रस्तता. मदमत्तता ला देते हैं। जैन-कर्मविज्ञान ने उन्हें क्रमशः दो कुलों में विभक्त किया है-घातिकुल और अघातिकुल। आत्मा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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