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________________ · * परमात्मपद - प्राप्ति का मूलाधार : आत्म-स्वभाव में स्थिरता * १५९ * आत्म-स्वभावनिष्ठ संसार को नहीं, सिद्धालय को अपना घर समझता है इस प्रकार आत्म-स्वभावनिष्ठ सम्यग्दृष्टि मुमुक्षु साधक आत्म-स्वभाव को ही अपना घर समझकर उसी में रहता, खाता-पीता तथा अन्य प्रवृत्तियाँ करता है । वह रागादि विभाव तथा तज्जनित द्रव्यकर्मों के उदय से प्राप्त परभाव को अपना घर नहीं समझता। इसका फलितार्थ यह है कि सम्यग्दृष्टि आत्म-स्वभावनिष्ठ साधक संसार में कुटुम्ब-परिवार, घर-बार, धन-सम्पत्ति आदि के बीच रहता हुआ भी संसार को अपना घर नहीं समझता और इन सब परभावों से अलिप्त और अनासक्त रहता है, इन सबको वह क्षणिक कर्मजनित सम्पर्क मानता है। लड़की जब तक कुँआरी रहती है, तब तक वह पिता के घर को अपना घर समझती है, पिता के घर की वस्तुओं को, धन-सम्पत्ति को अपनी कहती है | परन्तु जब उसका विवाह-सम्बन्ध अन्यत्र कर दिया जाता है, तब उसकी वह पूर्व - मान्यता बदल जाती है कि यह घर और यह धन-सम्पत्ति आदि मेरी नहीं है, मेरा जहाँ विवाह-सम्बन्ध हुआ है, वे ही घर, वर और धन आदि मेरे हैं। इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि आत्मा भी अनादिकाल से संसार को अपना घर मानता था तथा संसार में परिभ्रमण करता हुआ कर्मोपाधिक कर्मोदय प्राप्त सांसारिक सजीव-निर्जीव पदार्थों को, विशेषतः पुण्य-पाप और शरीरादि को अपने मानता था, परन्तु जब उसका सिद्ध-परमात्मा के साथ आत्मिक सम्बन्ध जुड़ गया और देव-गुरु-धर्म और शास्त्र के उपदेश से, ज्ञानी पुरुषों के सत्संग और उपासना से वह समझने लगा कि मेरा घर तो शाश्वत मोक्ष है, सिद्धालय है। सिद्ध-परमात्मा का जो सर्वकर्ममुक्त, अनन्त ज्ञानादि चतुष्टययुक्त स्वभाव है, वही मेरा स्वभाव है। सिद्ध भगवान के अनन्त ज्ञानादि गुणरूप धन ही मेरा धन है। इस प्रकार उक्त स्वभावनिष्ठ सम्यग्दृष्टि की अपनी पूर्व-मान्यता बदल जाती है। जब उसकी दृष्टि, रुचि और प्रतीति ऐसी हो जाती है कि " संसार की समस्त आत्माएँ अपने स्वभाव से ( निश्चयदृष्टि से ) सिद्ध- परमात्मा जैसी हैं।" तब उसकी दृष्टि, रुचि और मान्यता तुरंत बदल जाती है कि संसार के पुण्य-पाप, अथवा शरीरादि परभाव तथा रागादि विभाव मेरे नहीं हैं। मैं तो सिद्ध- परमात्मा के समान हूँ । सिद्धत्व मेरा स्वरूप है। जैसे अन्यत्र विवाह-सम्बन्ध होने पर भी लड़की अपने पिता के घर समय-समय पर आती-जाती रहती है, सभी प्रवृत्तियाँ करती है, परन्तु उसका लक्ष्य तो श्वसुर-गृह ही होता है। इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि आत्मा को जब से आत्म-स्वभाव का भान हुआ, सिद्ध-परमात्मा के साथ उसका आत्मिक सम्बन्ध हो गया, तब से वह आत्मा संसार में रहती है, सभी प्रवृत्तियाँ करती है, परन्तु उसका लक्ष्य संसाररूपी घर नहीं, मोक्ष या शाश्वत सिद्धालय हो जाता है। उसके पश्चात् वह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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