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________________ * १५८ * कर्मविज्ञान : भाग ९ * करता हुआ भी अन्तर में उदासीनता या अरुचि से एक क्षण भी हटता नहीं है। आत्म-स्वभावनिष्ठ श्रीमद् राजचन्द्र जी जवाहरात का व्यवसाय करते थे, वे अपनी दुकान पर बैठते थे तथा खाते-पीते, सोते-बैठते भी थे । वे सभी आवश्यक क्रियाएँ यथोचित रूप से करते हुए भी आत्म-भावों में जाग्रत रहते थे । ' आत्म-स्वभावनिष्ठ साधक की परमार्थ दशा सममुच आत्मार्थी की वृत्ति-प्रवृत्ति सतत आत्म-भाव में, निज अन्तरंग में बहती रहती है। इसी दशा को परमार्थ ( निश्चय ) से सम्यक्त्व दशा कही है । कविवर ' बनारसीदास जी ने सम्यग्दृष्टि साधक की वृत्ति - प्रवृत्ति का निम्नोक्त कवित्त में सुन्दर चित्रण किया है “स्वारथ के साचे, परमारथ के साचे चित्त । साचे साचे बैन कहे, साचे जैनमती हैं॥ काहू के विरुद्ध नांही, 'पर' (में) जाय बुद्धि नांही । आतम - गवेषी, न गृहस्थ हैं, न जती हैं ॥ सिद्धि ऋद्धि वृद्धि दीसै, घट (आत्मा) में प्रगट सदा । अन्तर की लच्छी सों, अयाची लच्छपती हैं॥ दास भगवन्त के, उदास रहे ज़गत सों । सुखिया सदैव ऐसे, जीव समकित हैं॥" –ऐसे आत्मार्थी एवं परमार्थ में दत्तचित्त सम्यग्दृष्टि आत्म-स्वभावनिष्ठ साधक बाहर से भले ही देशविरति श्रावक अथवा सर्वविरति साधु न हों, फिर भी वे अहर्निश आत्म-गवेषणा में तत्पर रहते हैं। उनकी बुद्धि कभी परभावों में नहीं जाती, सदैव आत्म-भावों में लीन रहने वाले वे मुमुक्षु किसी के विरुद्ध न तो द्वेष करते हैं, न राग- मोह । इस कारण उनके अन्तर में सदैव आत्म-प्रतीति की सिद्धि, आत्म-गुणों की ऋद्धि और आत्म-भावों की वृद्धि प्रकट होती है । इसलिए वे आन्तरिक (आध्यात्मिक लक्ष्मी) से या आत्मिक पुरुषार्थ के लक्ष्य से अयाचक, लखपति का लक्ष्यपति बने हुए हैं। वे परमात्म दशा के दास हैं, संसार से उदास हैं और सदैव आत्म-सुख का श्वास लेते हैं । ' १. (क) 'पानी में मीन पियासी' से भाव ग्रहण, पृ. ४१२ (ख) परमानन्द पंचविंशति, श्लो. २४ २. 'समयसार कलश' (कविवर बनारसीदास जी ) से भाव ग्रहण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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