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________________ * परमात्मपद-प्र द- प्राप्ति का मूलाधार : आत्म-स्वभाव में स्थिरता * १५७ * व्यक्ति परिवार, समाज और राष्ट्र में रहता है, फिर भी अपने मूल घर आत्मा को नहीं भूलता। भरत चक्रवर्ती का उदाहरण इस विषय में प्रसिद्ध है । जनक विदेही भी इसी प्रकार के अनासक्त और निर्लिप्त व्यक्ति थे । वस्तुतः जिस साधक की यह आत्म-दृष्टि स्थिर हो जाती है, वह न संसार के किसी बाह्य पदार्थ के प्रलोभन में फँसता है, न रागादि विभाव उस पर हावी हो सकते हैं, न उसे किसी प्रकार का भय रहता है। आध्यात्मिक क्षेत्र में सम्यग्दर्शन की कला जिसे उपलब्ध हो गई है, वह भव-जल में रहकर भी कमलसम निर्लिप्त रहता है, भोगों के कीचड़ में उत्पन्न होकर भी कमलसम उनसे ऊपर उठा रहता है। वह सिखाता है - " तुम संसार में भले ही रहो, परन्तु संसार तुम्हारे में न रहे। नाव जल में चलती है तो कोई भय नहीं, नाव में जल नहीं जाना चाहिए। सम्यग्दर्शन के विलक्षण प्रभाव से आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप का बोध प्राप्त करके स्वभाव में स्थिर होकर समग्र विभावों, परभावों तथा विकल्पों के जाल से स्वयं को मुक्त रख सकता है, सतत उदासीन और विरक्त रह सकता है । ' आत्म-स्वभाव में प्रतिक्षण जाग्रत साधक सतत परभावों और विभावों से उदासीन और विरक्त रहते हैं। आशय यह है कि जिस प्रकार धनलोलुप व्यक्ति के मन में खाते-पीते, उठते-बैठते, चलते-फिरते, सोते-जागते सतत धनलिप्सा के भाव चलते रहते हैं, उसकी रुचि, उत्सुकता सतत धनवृद्धि में लगी रहती है, उसी प्रकार आध्यात्मिक रुचि वाले आत्म-स्वभावनिष्ठ व्यक्ति भी खाते-पीते, चलते-फिरते, सोते-जागते सदैव निरन्तर परभावों और विभावों के प्रति उदासीन और विरक्त रहकर स्वभाव में लीन रहते हैं । 'परमानन्द पचविंशति' में कहा है “आनन्दरूपं परमात्मतत्त्वं समस्त संकल्प-विकल्पमुक्तम् । स्वभावलीना निवसन्ति नित्यं, जानाति योगी स्वयमेव तत्त्वम् ॥” –समस्त संकल्प-विकल्पों (परभावों-विभावों के विकल्पों) से मुक्त आनन्दरूप जो परमात्मतत्त्व है, उसे योगी स्वयमेव (आत्म-स्वभाव से - आत्मा के शुद्ध ज्ञान से) जान लेता है। उनमें से जो स्वभाव में लीन होते हैं, वे नित्य (परमात्मभाव में ) निवास करते (स्थिर हो जाते ) हैं । " तात्पर्य यह है कि जो स्वभाव के प्रति जागरूक और अप्रमत्त होता है, वह चाहे जैसी स्थिति में मन-वचन-काया से चाहे जैसी प्रवृत्ति करे, परभावों से उदासीन और विरक्त रहता है । खाना-पीना, सोना, व्यापार करना आदि क्रियाएँ १. (क) 'पानी में मीन पियासी' से भाव ग्रहण, पृ. ४११ (ख) 'अध्यात्म प्रवचन' (उपाध्याय अमर मुनि ) से भाव ग्रहण, पृ. २६१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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