________________
* १५६ * कर्मविज्ञान : भाग ९ *
परभावों और विभावों से सतत उदासीनता और विरक्ति ऐसे रह सकती है।
कोई यह कहता है कि अहर्निश सतत परभावों और विभावों के प्रति उदासीनता या विरक्ति कैसे हो सकती है ? क्योंकि देहधारी मानव को खाना, पीना, सोना, चलना-फिरना आदि शारीरिक क्रियाएँ भी करनी पड़ती हैं। पाँचों इन्द्रियों के विषयों का अपनी भूमिका की मर्यादा में भी सेवन करना पड़ता है, कई पर-पदार्थों का उपभोग भी करना पड़ता है। उक्त क्रियाओं को करते समय तथा पंचेन्द्रिय विषयों का यथोचित मर्यादा में सेवन करते समय तथा पर-पदार्थों का यथोचित उपभोग करते समय शरीर-इन्द्रियादि परभावों तथा रागादि विभावों की ओर मन जाएगा ही, शरीर भी उन्हें ग्रहण करने जाएगा ही, ऐसी स्थिति में उन परभावों या विभावों से सतत उदासीनता और विरक्ति कैसे रह सकती है? इसका शास्त्रीय समाधान इस प्रकार है-विभावों या परभावों के प्रति रुचि, अनुरक्ति या आसक्ति का सारा दारोमदार मन पर है। यदि मन किसी भी परभाव को देख-सुनकर या. आकर्षित होकर उसके प्रति प्रियता-अप्रियता, मनोज्ञता-अमनोज्ञता अथवा शुभ-अशुभ का, राग या द्वेष का भाव नहीं लाता है, तटस्थ एवं उदासीन रहता है, केवल ज्ञाता-द्रष्टा बनकर रहता है, उसके प्रति रुचि या अरुचि नहीं दिखाता है, अनिष्ट-इष्ट-वियोग या इष्ट-अनिष्ट-संयोग में हर्ष-शोक का भाव लाकर आर्त्तध्यान नहीं करता है, हीनता-दीनता या उच्चता-नीचता के भाव नहीं लाता है, तो वह सभी प्रकार की क्रियाएँ करता हुआ भी सतत उदासीन व विरक्त रह सकता है, अपने ज्ञानमय स्वभाव में आत्मा को स्थिर रख सकता है। यदि साधक सम्यग्दृष्टि
और आत्मार्थी मुमुक्षु है तो बाह्य पदार्थों के रहते हुए तथा उनका यथोचित मर्यादा में उपभोग करते हुए भी उसके मन में आसक्ति, स्वादलिप्सा, तृष्णा, पाने की लालसा आदि नहीं है तो वह अनासक्त, उदासीन और विरक्त रह सकता है, पास में पर-पदार्थों के रहते हुए भी तथा उनका उपभोग व उपयोग करते हुए भी यदि राग-द्वेषात्मक परिणति नहीं है, तो भोग्य पदार्थ भले ही रहें, कोई आपत्ति नहीं है, किन्तु उपभोग के क्षणों में रागात्मक एवं द्वेषात्मक भाव नहीं है, तो साधक उदासीन एवं विरक्त रह सकता है। यदि इस कला को हस्तगत कर लिया जाए तो बाह्य पदार्थों (परभावों या विभावों) में ऐसी शक्ति नहीं है कि आत्मा को अपने आप में बाँध सके। यह सूत्र याद रखना है कि आत्मा के साथ शुद्ध आत्मा (आत्म-भाव) को बाँधता है, न कि पदार्थों को। आत्म-भावों में स्थिर रहने वाला साधक संसार में रहता हुआ भी संसार के बंधनों में नहीं फँसता। वह संसार के बन्धनों से ऊपर उठ जाता है। शरीर में रहकर भी वह शरीर की ममता-मूर्छा के कारागार में नहीं बँधता। सम्यग्दृष्टि की विमल ज्योति जिसे मिल चुकी है, वह
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org