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________________ * परमात्मपद-प्राप्ति का मूलाधार : आत्म-स्वभाव में स्थिरता * १५५ * रहेगी, परन्तु इस शरीर (मानव-शरीर) का सम्बन्ध तो नया हुआ है। हमने पूर्व-भवों में तथा इस भव में भी शरीरादि निमित्तों को खूब जाने, अपने माने, परन्तु उपादानरूप आत्मा के स्वभाव को जाना तथा अपना माना नहीं। पुण्य को आत्मा का स्वरूप माना, आत्मा को भी विकार (विभाव) युक्त माना, ये सब आत्म-स्वभावरूपी भ्रान्तियाँ भव-भव में रहीं, वे दूर नहीं हुईं। अतः आत्मा (उपादान) के स्वभाव-स्वरूप की जो भ्रान्तियाँ रह गई हैं, उन्हें दूर करने तथा आत्मा की अपने स्वभाव में निष्ठा के लिए प्रभावशाली उपाय है-“परभावों और विभावों के प्रति निरन्तर उदासीनता का क्रम सेवन करना।'' यही आस्रवनिरोधरूप भावसंवर है तथा स्वभावरमणता से कर्मक्षयरूप निर्जरा है और मोक्ष-प्राप्ति अथवा परमात्मपद-प्राप्ति, स्वभावनिष्ठा के लिए अमोघ उपाय है। परभावों तथा विभावों के प्रति निरन्तर उदासीनता का विधान इसलिए किया गया है कि जरा-सा प्रमाद का झोंका आया कि आत्मा लुढ़क जाएगी विभावों और परभावों की ओर, देखते ही देखते वैराग्य या औदासीन्य का क्रम टूट जाएगा। जिस प्रकार किसी मंत्र को सिद्ध करना होता है तो लगातार उसकी आवृत्ति करनी होती है। अगर मंत्र-साधक मंत्र जाप बीच में ही छोड़ देता है, क्रम भंग कर देता है, तो मंत्र-शक्ति जाग्रत नहीं होती। उसे मंत्रसिद्धि के लिये फिर से उतना ही जाप बिना व्यवधान (गेप) किये लगातार करना पड़ता है। बादाम में से तेल निकालना हो तो उसे लगातार घिसना पड़ता है। यदि थोड़ा-सा घिसकर उसे छोड़ दिया जाए और दूसरे कार्यों में व्यक्ति लग जाए तथा घंटे-दो घंटे बाद फिर आकर घिसने लगे तो उसमें से तेल नहीं निकलता। उसी प्रकार परभावों के प्रति निरन्तर उदासीनता या वैराग्य न रखे तो स्वभावनिष्ठा की भूमिका सुदृढ़ नहीं हो सकती। 'योगदर्शन' में इसी तथ्य का समर्थन किया गया है ___ “स तु दीर्घतर-नैरन्तर्य-सत्कारा सेवितो दृढ़भूमिः।" .. -दीर्घकाल तक निरन्तर सत्कारपूर्वक अभ्यास करने से ही साधना की भूमिका सुदृढ़-परिपक्व होती है। . अतः स्वभाव के प्रति स्थिरता एवं निष्ठा को सदृढ़ बनाने के लिए परभावों और विभावों के प्रति सतत उदासीनता और विरक्ति जारी रखनी आवश्यक है। जब परभावों और विभावों के प्रति उदासीनता, अरुचि और विरक्ति प्रतिक्षण होगी, तभी उनके प्रति रुचि, अनुरक्ति या आसक्ति घटेगी और तभी अन्तरात्मा का स्वभाव की ओर चिन्तन, रुचि और उत्साह बढ़ेगा और तभी स्वभावनिष्ठा परिपक्व होगी। १. (क) 'पानी में मीन पियासी' से भाव ग्रहण, पृ. ४१०-४११ (ख) योगदर्शन . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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