SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 308
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * १५४ * कर्मविज्ञान : भाग ९ * जाता है, स्वतः ही परभाव से मुक्त हो जाता है, अर्थात् वह स्वयं ही परभाव को छोड़ देता है अथवा परभाव स्वतः ही छूट जाता है।" __ इससे सिद्ध हुआ कि “आत्मा कदाचित् परभाव में (प्रमादवश) चला भी जाए, किन्तु अन्तर में उसके प्रति उदासीनता हो, अथवा तुरंत जाग्रत होकर स्व-स्वभाव में लीन हो जाए तो ‘पंचास्तिकाय' के अनुसार वह द्रव्यकर्म और भावकर्म दोनों के बन्ध से छूट जाता है।" शुद्ध चैतन्यमूर्ति आत्मा में कर्मरज प्रविष्ट नहीं हो सकती . __जैसे शुद्ध स्फटिक की मूर्ति पर धूल पड़ी हुई हो, तो वह ऊपर-ऊपर ही रहती है, वह धूल उस मूर्ति के अंदर प्रविष्ट नहीं हो सकती। स्फटिकमूर्ति तो निर्मल ही रहती है; उसी प्रकार चैतन्यमूर्ति आत्मा भी स्वभाव से स्फटिक जैसी निर्मल ही है। उस पर कर्मरूपी धूल (रज) पड़ी होने पर भी वह शुद्ध आत्मा में प्रविष्ट नहीं हो सकती। आत्मा (अपने आप में) ज्ञानमय-स्वभावरूपी चैतन्यमूर्ति निर्मल है। वह कर्म तथा शरीर की धूल से पृथक् रहा हुआ है। यों जानकर दृढ़ निश्चय के साथ प्रतीति करे तो ज्ञानानन्द-स्वभावरूप शुद्ध आत्मा की अनुभूति होती है। स्वभावनिष्ठा की सुदृढ़ता ऐसे हो सकती है आशय यह है कि जिस प्रकार स्फटिक निर्मित मूर्ति के ऊपर चारों ओर धूल होते हुए भी वह धूल उस मूर्ति में प्रविष्ट नहीं हो सकती; उसी प्रकार शरीर और कर्मसमूहरूपी धूल के बीच में ज्ञानमूर्ति आत्मा विराजमान होते हुए भी आत्मा में वे (शरीर या कम) प्रविष्ट नहीं हो सकते। इस प्रकार आत्मा को रागादि विकारों (विभावों), विकल्पों और परभावों से निर्लिप्त जानकर अन्तर में उसे शुद्ध रूप में देखने का अभ्यास और प्रयत्न करे तो वह शुद्ध स्वभावमयी दिखाई देती है, इन्द्रियों द्वारा नहीं, किन्तु अतीन्द्रिय ज्ञान-दर्शनरूपी नेत्रों से। इस प्रकार दिव्य अन्तश्चक्षुओं से आत्मा को देखने का अभ्यास करे तो स्वभावनिष्ठा सुदृढ़ हो जाती है। स्वभावनिष्ठा के लिए परभावों के प्रति सतत उदासीनता आवश्यक स्वभावनिष्ठा के लिए परभावों तथा विभावों के प्रति सतत उदासीनता-उपेक्षा आवश्यक है। आत्मा तो हमारे साथ अनन्तकाल से है, आगे भी अनन्तकाल तक १. (क) ‘पानी में मीन पियासी' से भाव ग्रहण, पृ. ४०८-४०९ (ख) जीवो सहावमयो, कहं वि सो चेव जाद-परसमओ। जुत्तो जइ ससहावे, तो परभावं खु मुंचेदि॥ (ग) जइ कुणइ सग-समयं, पब्भस्सदि कम्मबंधादो। -नयचक्र, गा. ४०२ -पंचास्तिकाय, गा. ३५३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy